जीवन संग्राम
सहन करो आघात प्राण को अर्पण कर दो
बहे नहीं एक बार अश्रु को तर्पण कर दो
चलो भरो हुंकार भाव को जागृत कर लो
मरो नहीं सत् बार भला एक बार ही मर लो,
वसुधा के तुम पूत प्रण है लखन सा तुझमें
मेघनाद सा मर्दन जैसा कौशल तुझमें
यह अनंत आकाश तेरा गुणगान करेंगे
शत्रु भी शत् बार देख तुझको ही जलेंगे
चलो उठो रणधीर आलस को त्यागो तुम
जीवन है संग्राम नहीं इससे भागो तुम।
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”