जीवन और आस्था अन्योंन्याश्रित(पेरिस घटना)
ना खेलो
किसी की आश से
आस्था के विस्वास से
ये उसका वजूद है
जीवन का स्थूल है ।
अभी कुछ समय पहले फ़्रांस की राजधानी पेरिस में एक अध्यापक द्वारा इस्लामिक धर्म गुरु मोहम्मद पैगम्बर का कार्टून अपनी क्लास में बच्चो के सामने प्रदर्शित किया जिससे एक मुस्लिम बच्चा इतना आहत हुआ कि उसने अपने अध्यापक का धार धार चाकू से गला ही काट दिया। वास्तव में यह वहुत गलत हुआ जो नही होना चाहिए था और एक विकसित समाज में तो बिलकुल भी यह स्वीकार नही है।
किन्तु यह घटना दोनों ही तरफ से नही होना चाहिए थी ना तो अध्यापक को किसी भी धर्म के अनुयायियों की आस्था को आहत करना चाहिए था और ना ही उस बच्चे को अपना विरोध दर्शाने के लिए उस अध्यापक का गला काटना चाहिए था। अध्यापक की गलती थी कि उसने जानते हुए उस खास धर्म की आस्था को आहत किया जबकि ऐसी घटनाएं फ़्रांस और विस्व में पहले भी कई बार हो चुकी है जिनमें हर बार ऐसे ही प्रतिक्रिया मिली है। और बच्चे की गलती थी कि उसको अहिंसक विरोध दर्ज करना चाहिए था ना कि अति हिंसक कार्यवाही कर हत्या करना।
वास्तव में धर्म एक आस्था का विषय है एक ऐसा विस्वास है जो हमैं विस्वास दिलाता है कि हम अकेले नही है हमारे साथ कोई सर्वशक्तिमान है जो हमको न्याय दिलाएगा जो हमारे दुखों-दर्दो को दूर करेगा क्योकि उसी के पास ये सब करने की शक्ति है और तरीका भी। यही अस्तित्व है भगवान का और परमात्मा का जो हमारे दिल दिमाग में समाज बचपन से ही समाज द्वारा जाग्रत कर दिया जाता है। अब चाहे यह गलत हो या सही यह वहस का मुद्दा ही नही है। क्योकि हर किसी को भगवान चाहिए इस अनंत ब्रह्माण्ड में स्वयं को सुरक्षित महसूस करने के लिए।
वास्तव में कुछ सालों से मुस्लिम राष्ट्रों को आतंक ने तबाह कर दिया है वहां की जनता दर दर भटकने के लिए मजबूर हो गयी है। आज विस्व में सर्वाधिक शरणार्थी मुस्लिम जनता ही है जिसकी बजह स्वयं उन देशों की सरकार है और कहीं हद तक जनता भी। ऐसे माहौल ने आम मुस्लिम जनता को त्रस्त कर दिया है उनका घर-परिवार,सम्पप्ति और भविष्य के सपनों को चकनाचूर कर दिया है। उनका सरकार से समाज से पूरा विस्वास ही समाप्त हो चूका है। अब अगर उनका विस्वास बचा है तो केबल अपने ईस्वर में अपने ख़ुदा में जिसके भरोसे वो अपने जीवन को पुनः सुरक्षित और खुश करना चाहते हैं। इसलिए हमको ऐसे काम करने से बचना होगा जिससे ऐसे बेचारा और बेसहारा लोगों के विस्वास को ठेस पहुंचे उनकी आशा को ठेस पहुंचे।
अभिव्यक्ति वर्तमान समाज की सबसे बहुमूल्य वस्तु है इसलिए विस्व के लगभग सभी देशों के संविधान में इसको प्रमुखता से स्थान दिया गया है। किन्तु जिस प्रकार देशों ने अन्य देशों से अपनी सीमा रेखा को चिन्हित किया है और सेना एवं हथियारों द्वारा सुरक्षित किया है उसी प्रकार अभिव्यक्ति की भी एक सीमा है जिससे आगे बढ़ने का अर्थ है विरोध।इसलिए हम सभी को इस सीमा को समझना होगा और उसी प्रकार से व्यवहार करना होगा किन्तु इसका अर्थ यह बिलकुल भी नही कि सीमा रेखा समझते हुए किसी समाज की बुराइयों पर्दा डाला जाय।
हम अपनी अभिव्यक्ति के नाम पर लोगों की आस्था का माजक नही बना सकते और नाही हमको सामाजिक अभिव्यक्ति ऐसा करने की स्वतंत्रता देती है। यह एक नफरत है और कुंठा जो हमको प्रेरित करती है कि हम दूसरों से श्रेष्ठ है उन्नत है और ज्यादा विकसित है , जो एकदम गलत और स्वीकृत नही है क्योंकि वर्तमान समाज मध्यकालीन समाज नही है।जिसमे शक्तिशाली व्यक्ति अन्य व्यक्तियों पर राज करे और उनको नीचा दिखाये धर्मिक या जाति के नाम पर।
उस बच्चे ने जो किया वह भी बिलकुल स्वीकृत नही किया जा सकता इसके लिए इस्लामिक गुरुओं और समाज को ध्यान देना होगा और नई तरह से समाज को समझना होगा कि अंग भंग का सिद्धांत समाज को अपाहिज कर देगा और बताना होगा कि ईस्वर एक है फिर चाहे उसकी पूजा अर्चना किसी भी रूप में करे सब मान्य है ।
हर व्यक्ति की अपनी आस्था और विस्वास है जिसे जानने और समझने के लिए वह स्वतन्त्र है। इसलिए हमको सामने बाले को उसी के व्यवहार पर छोड़ देना चाहिए क्योकि परमात्मा सर्वशक्तिशाली है अगर उसे बुरा लगेगा तो वह प्रतिक्रिया जरूर करेगा और वह प्रतिक्रिया स्वयं के स्तर से होगी ना कि किसी मनुष्य को गुमराह करके। अगर हम ईस्वर के नाम पर कोई नफरत भरा कार्य करते है तो हम अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से अपने ही भगवान को कमजोर और लाचार करते है क्योंकि ईस्वर सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है, वह शैतान में भी रहता है और इंसान में भी और वही सबका पेट भरता है इंसान का भी और शैतान का भी। इसलिए ईस्वर को ही स्वयं निर्णय लेने दो कि गलत करने बाले के साथ क्या किया जाना चाहिए। और इसप्रकार के उदाहरण सभी धर्म ग्रंथों में आसानी से ढूंढे जा सकते है ।
अपना विरोध प्रदर्शन करने के बहुत तरीके है केबल हत्या ही नही है। हत्या विचारो की आखिरी स्थिति होती है ,जब हमारे सभी प्रकार के तर्क हार जाते है और हमारी आस्था अपना अस्तित्व खोने लगती है तब हम या तो अपनी आस्था को छोड़कर दूसरी आस्था से आकर्शित होते है या फिर अपनी आस्था को बचाने के लिए हिंसा का रूप धारण कर उन सभी प्रश्नों को अबरुद्ध कर देते है जो हमारी आस्था की वास्तविक परीक्षा होती है। इसलिए अपनी आस्था को जलाये रखने के लिए जरूरी है कि हम सभी प्रश्नों को अहिंसक रूप से उत्तर दें।
हिंसक प्रकार के तरीके केबल आपके प्रति अन्य माताबलम्बियो में नफरत और घृणा ही भरते है जिससे आपको और आपके धर्म को ही हानि होगी और उस संदेश को जिस आधार पर मजबूत और सुंदर धर्म खड़ा हुआ।
माताबलम्बियो के व्यवहार के आधार पर किसी भी धर्म को बुरा नही कहा जा सकता क्योंकि मताबलम्बी धर्म का प्रयोग शक्ति प्राप्त करने के लिए भी करते है और आम जनता को धर्म की गलत व्याख्या करके उनको भ्रमित करते है।
उस अध्यापक ने जो मुस्लिम धर्मानुयायियों के खिलाफ किया अगर वह ऐसा ही व्यवहार किसी अन्य धर्म के प्रति भी करता तो प्रतिक्रिया जरूर होती हां सायद हत्या ना होती किन्तु विरोध जरूर प्रदर्शित किया जाता और अहिंसक विरोध जरूरी भी था क्योकि किसी की आस्था आपके अभिव्यक्ति के अधिकार से ज्यादा बड़ी है।
वर्तमान समय में आज भी ऐसी आस्था है जिनको देखकर उनकी खिल्ली उड़ाई जा सकती है और तकनीकी आधार पर उनको गलत भी साबित किया जा सकता है किंतु एक सभ्य समाज और विचारशील समाज इसकी इजाजत बिलकुल नही देता क्योकि तकनिकी शक्ति देती है तो आस्था तकनीकी को संतुलित करना सिखाती है। इसलिए समाज में इन दोनो की जरूरत समान रूप से और संतुलित रूप से है।
इसलिए जीवन और आस्था दोनों ही परमावश्यक है दोनों के ही अस्तित्व के लिए क्योकि दोनों अन्यन्याश्रित है और अभिव्यक्ति की आजादी वर्तमान समाज के लिए परमावश्यक है किंतु सभी को सम्मान देते हुए।