जिहादियों की पेशी
चार जिहादी आखरियत में, पास खुदा के पहुंचे
देखा गया कर्म का खाता, सब रह गए आंखें मीचे जिहाद के नाम पर इनने, दुनिया में आतंक मचाया है निर्दोषों की हत्याएं कीं, गोली बम से उन्हें उड़ाया है मारे हैं बूढ़े बच्चे, जनानियों का शोषण कर आया है
कई परिवार और बच्चों को, यतीम कर आया है
मजहब के नाम पर इनने, हिंसा का खेल रचाया है ऐसे ऐसे कर्म हैं इनके, दोजख भी झेल न पाया है कौन होता है काफिर, क्या तुमको इतनी अकल नहीं सब ही तो है मेरे बंदे, क्या वह मेरे फरजंद नहीं
तुम मुझको अल्लाह कहते हो, वो ईश्वर कहते हैं
सारे बंदे कई नाम से, नाम मेरा लेते हैं
तुमने धर्म के नाम पर बंदे, बहुत अधर्म किया है
प्रेम शांति और अमन छोड़कर, हिंसा द्वेष किया है मैंने तुमको धरती पर भेजा, जन्नत सा उसे सजाया बख्शी ढेरों नियामतें, तू उसको भोग न पाया
चार चार निकाह किए तूने, क्या वो हूरों से कम थीं? उनको यतीम कर आया तू, जो तेरे ऊपर आश्रित थीं जन्नत सी धरती पर तूने, क्या क्या सितम ढाया
जन्नत हूरों के लालच में, जन्नत छोड़ तू आया
नहीं सवाब कमाया तूने, पापों की गठरी लाया
चारों सिर झुका कर बोले, मालिक हम पर रहम करो हमने काफिरों को मारा है, हम पर ना यह जुर्म करो हमको बतलाया था, जिहाद से जन्नत मिल जाएगी सुंदर सुंदर हूरें तेरा, स्वागत करने आऐंगी
अब तो तेरे दुष्कर्मों की, तुझ को सजाएं मिलेंगी तुमने की है नाफरमानी, रुह को दोजख भी न लेगी तुमने नहीं हिदायत मानी, तुझको जगह कहां मिलेगी?
सुरेश कुमार चतुर्वेदी