मुक्तक -विविधा-जली कटी बातें सदा
चित्रकाव्य
एक मुक्तक:-
हैवानों के क्रूर हाथ ने, देखो कैसी दशा बना दी।
भूल गया मर्यादा सारी, अपनी फिर औकात दिखा दी।
अस्त व्यस्त कर डाले कपड़े, तोड़ दिए उसके सब सपने,
शर्मसार मानवता देखो,इक नारी चिर नींद सुला दी।
चतुष्पदी
प्रदत्त शब्द-टकराते।
गहन ताप बढ जाता है जब विटप झुलस जाते हैं।
आंगन चमन सभी के घर प्रेम पुष्प मुरझाते है
आपस में भाई भाई जब, भिड़ जाते हैं अक्सर,
लालच हद से बढ जाता और स्वार्थ टकराते हैं।
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ध्रुव शब्द – चमचागिरी
आधार छंद – लावणी
चमचागिरी नहीं करते जो,सुखी सदा ही रहते हैं।
लेकिन कदम कदम वो चलकर, मंजिल अपनी बढते हैं।।
चमचों से जो घिरे हुए हैं,अक्सर ठोकर हैं खाते ,
मंजिल पाकर फेल हुए वो,मेरे पापा कहते हैं।।
?अटल मुरादाबादी ?
“द्वै मुक्तक ”
जली कटी बातें सदा ,करती हैं आघात।
मीठी बातें नित सदा ,करती प्रेम प्रपात।
जली कटी बातें कभी ,करना मत इंसान।
माफ़ उन्हें करते नहीं, देते हरि खुद मात।।
जली कटी बातें सुनीं,गया विभीषण रूठ।
रावण के दिन ढल गये,छूट गया सब झूठ।
शरण राम की वो गया,छोड़ा झूठ प्रपंच,
सब कुछ माटी में मिला,अंत मिला बस ठूँठ।