जब भी ध्यान लगाता हूं, कविता अंदर आ जाती है
जब भी ध्यान लगाता हूं, कविता अंदर आ जाती है
नवरस अलंकार से शोभित, ध्यान मेरा भटकाती है
कर सोलह श्रंगार, रूप रस गंध में मुझे लगाती है
प्रकृति के सहज सौंदर्य को, छह ऋतुओं दिखलाती है
सप्त स्वरों में गीत प्रेम के, कविता छंदों में गाती है
कभी योग कराती है, कभी वियोग को लाती है
अपने अपूर्व सौंदर्य से, नाना रूप दिखाती है
सप्त स्वरों में गीत प्रेम के, कविता छंदों में गाती है
जब मां की याद कभी आई, कविता ने करुणा वरसाई
ममता का आंचल फैलाया, लोरी गाती रही सुहाई
दुखी हुआ जब कभी मन मेरा, गई दौड़ हास्य ले आई
हंसा रही थी मुझको जमकर, खुद मंद मंद मुस्काई
मातृभूमि पर संकट आया, वीरों को फौलाद बनाया
पहना दिया बसंती चोला, चरनन शीश चढ़ाई
अन्याय अत्याचार देख, क्रोध से भर जाती है
रणचंडी बन अत्याचारी को, रौद्र रूप दिखलाती है
सुनकर करुणा की करुण कहानी, आंसू बन जाती है
जीवन के अंधेरे पल में, नव प्रकाश भर जाती है
अमानवीयता देख कभी, घृणा से भर जाती है
भय से भरती है यह मन को, भयानक रूप बनाती है
बड़ी हीअद्भुत है कविता आश्चर्यजनक कथाएं लाती है
जादुई है इसका चमत्कार, आंख फटी रह जाती है
बड़ी मनभावन है कविता, नाना छंदों में गाती है
ज्ञान भक्ति और संस्कार, सारी दुनिया को देती है
जब भी ध्यान लगाता हूं, कविता अंदर आ जाती है
सुरेश कुमार चतुर्वेदी