छोड़ आये हम अपना बचपन
छोड़ आये हम अपना बचपन उन हसीन वादियोँ मेँ,
जहाँ कभी सरसोँ के फुल लहलहाते थे
गन्ने के खेत हमेँ अपनी तरफ बुलाते थे
जहाँ पंछी अपने मधुर स्वर मेँ चहचहाते थे
कौवे की काँव काँव किसी के आने की आभास कराते थे
कागा की कलरव किसी अनिष्ट का भान कराते थे
जहाँ कोयल की कूक हृदय को लुभाते थे
ऋतुराज के आगमन का शुभ संदेश सुनाते थे
दो गाँवोँ के बीच की पगडंडी हमेँ स्कूल की राह बतलाते थे
छूट्टी की अंतिम घंटी मन मे मीठा उमंग जगाते थे
छूट गया ओ बचपन अपना बची रही कुछ धुमील सी याद
भागम भाग भरे जीवन मेँ कहाँ अब कोई चैनो – आराम
रीस्ते छूटे नाते छूटे छूट गये सब अपने लोग
फिर भी कहाँ अब चैन हमेँ है
करेँ कौन सा अब उतयोग ?
हर पल है मातम सी छाई अपने मन की बगीया मेँ
कितनी अच्छी निन्द थी आती उन आमोँ की बगीया मेँ
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
मुसहरवा
प.चम्पारण (बिहार)