छोड़ रहे हैं परम्पराएं
छोड़ रहे हैं परम्पराएं, तुमको कैसे बतलाएं।
गांवों में वह बात कहां है, जाकर फिर खुशियां पाएं।
गांवों की भी सोंधी मिट्टी,
अपनी खुशबू छोड़ रही।
दुनिया की अब आपाधापी,
सब मर्यादा तोड़ रही।
सूना है मन का आंगन भी,अब कैसे इसे बसाएं।
दीवारें हैं आज दिलों में,
उजडी है दिल की बस्ती।
कलुषित भाव हुए हैं मन के,
डूब रही थल में कश्ती।।
जल का नहीं निशां दिखता है, हम कैसे उसे बचाएं।
टूट रहे हैं अब रिश्ते भी,
कच्चे सूती धागों से।
कब्जा करते आज बिलों पर,
आस पडौसी नागों से।
गांवों में वह बात नहीं अब,कैसे दिल को समझाएं।
पीपल की वह छांव नहीं है।
गौरैया को ठांव नहीं है।
कागा भी संदेशा लेकर
नहीं मुंडेर पर आता है।
आने वाला कोई अतिथी
नहीं किसी को भाता है।
सांकल है हर दरवाजे पर,जायें तो कैसे जाएं।
दो गांवों की पगडंडी भी,
अब अनजानी लगती है।
बेगाने हैं गली मुहल्ले,
आपस में ही ठनती है।
रंजिश का अब दौर वहां भी,हक इक दूजे का ही खाएं।