*** ” चौराहे पर…!!! “
*** युवा मन अकेला था ,
चौराहे पर खड़ा ;
जाना है पर ..किधर ,
यही सोंच में पड़ा था ।
भीड़ की तादाद बहुत बड़ी थी ,
किससे पूछूं मैं राह सही ,
यही उलझन में फंसा था ।
न जान , न किसी से कोई पहिचान ,
कौन..? बतायेगा राह सही ,
लगाऊँ कैसे मैं , कोई अनुमान ।
यही चिंतन में….!
एक किनारे पर खड़ा था ,
सूरज की तपन से..
स्वेद-जल (पसीना ) टपक रहा था।
एक सज्जन से पूछा मैंने :
” यह कौन-सा चौक है..? ”
उसने कहा :
” भाई जी…! विजय-पथ.. ” ।
मैंने अंतर्मन से कहा :
” वाह क्या बात है…! ”
काश..! यही से शुरू हो जाता ,
अपना भावी-जीवन रथ ।
*** सहसा किसी ने पूछा :
” अरे ओ बाबू जी..! ,
कहां जाना है..? कुछ मदद करूँ । ”
आवाज दे…
कुछ ही दूरी पर ,
पीछे एक हाड़-मांस (वृद्ध) खड़ा था ।
मैंने सोचा कि…
क्या अभी से पिछे मुड़ना उचित है ।
फिर गंतव्य की ओर…
आगे कैसे बढ़ना है ।
पुनः एक विचार आया अंतर्द्वंद से…
” हर एक आगे कदम बढ़ने में ,
एक पीछे कदम का साथ होता है । ”
मैं पीछे आया…
उस हाड़-मांस , पगड़ी-धर ,
लठधर ( लकड़ी की छड़ी ) के पास ,
होकर कुछ उदास ।
ये क्या बतायेगा.. मुझे
राह सही , कब से यहीं खड़ा है ।
खुद एक छड़ी के सहारे….
जो यहीं पर तब से पड़ा है ।
उसने कहा :
” बैठ बाबू जरा.. ले थोड़ा पानी पी ,
इतना क्यों उदास है । ”
” कहां जाना है ..? ”
” मुझे मालूम है.. ,
किसी को यहां नहीं रहना है । ”
मैंने कहा :
” बाबा धन्यवाद…!! ,
मुझे एक सफल राही बनना है । ”
” किस ओर ( राह ) चलूँ…
यहां तो भीड़ बहुत है । ”
” इतनी तादाद में… ,
अपना कोई चित्-परिचित भी नहीं है। ”
*** बाबा ने हँस कर बोला :
” बाबू जी…!
मैं हूँ एक अनपढ़-अंगूठा छाप , गंवार । ”
” तुम हो पढ़ा-लिखा होशियार…, ”
” वैज्ञानिक युग के कर्णधार… ” ।
मैं… ,
” तुम्हें राह कौन-सा बताऊँ… ”
” तुम्हारे चक्षु के दीप , कैसे मैं जलाऊँ… ” ।
मैंने कहा :
” ओ तो कागज पर अंकित…
कुछ उपाधियां है । ”
” जो किसी संकट की आंधियों संग…
उड़ जाती है ।”
” अगर किसी ने जकड़ कर पकड़ ली हो तो…
हाथ पर रखी हुई , टुकड़े-टुकड़े हो ,
इधर-उधर बिखर जाती है । ”
शायद…!
” किसी के अनुभव का साथ मिल जाए तो…
ये जीवन निराली हो और संवर जाती है । ”
बाबा जी…! मेरी बातें सुन कहने लगा :
” बाबू तुम तो बहुत गुणी बातें करते हो । ”
” आधुनिकता के इस युग में भी… ,
इतनी सुदृढ़ और सुंदर विचार रखते हो । ”
फिर बाबा जी ने कुछ और कहा :
” बाबू मैं तुम्हें बेटा..! कह सकता हूँ ,
अगर आपको बुरा न लगे तो…! ”
बेटा….!!!
” इस चौराहे पर , सब कुछ ठीक लिखा है । ”
” कौन-सा राह , कहाँ जाती है : –
‘ ये दिल्ली की ओर जाती है
(अपनी लक्ष्य को इंगित करता ) ,
‘ ये बंबई की ओर जाती है…
ये चेन्नई की ओर जाती है ।
और…
‘ ये राह कलकत्ता की ओर जाती है ‘ । ”
लेकिन…
तुम्हें ही तय करना है कि…
किस ओर ( राह ) जाना है ।
आगे तुम्हें…
और भी कई चौराहे मिलेगा…!
जहाँ…
कुछ भी नहीं , लिखा रहेगा….!!
बस तेरा एक हौसला, उम्मीद…,
और…
नेक इरादा ही ” लक्ष्य-पथ” पर साथ रहेगा…!!!
फिर…
दुनिया तूझे एक सफल राही…
और राहगीर कहेगा..!!!!
बेटा…..!!!
मैं चलता हूँ…..
” अपना ख्याल रखना..! ,
एक सुंदर विकल्प चुन लेना…!! ,
एक अच्छा राही-राहगीर बन ,
सतत् चलते रहना…!!! ”
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर (छ. ग.)
१८ / ०६ / २०२१