— चुरा लो बेशक —
आदत सी में शामिल है
कुछ की फितरत में है
किसी की नियत में है हर पल
चुरा के ही काम करना है
पर, एक चीज
कौन कहाँ तक चुरा सकता है
शब्दों के अनमोल शब्द
वो कैसे चुरा सकता है
कहाँ रखेगा संभाल कर
कौन सी जगह वो बना सकता है
ऐसी विधा है यह शब्दों की
बेशक चुरा लो,
पर वो कोई कैसे चुरा सकता है
खुद को भी नही पता
कहाँ से निकल के यह आते हैं
लिखने चलो दो शब्द
कलम से अनगिनत निकल आते हैं
माँ सरस्वती तुमने ऐसा
हम सब को यह वरदान दिया
नहीं भरती है झोली कभी भी
“अजीत” कितना सुखी माँ तूने संसार दिया
हाथ जोड़ तेरा वंदन करूँ
रात दिन बस तेरा में ध्यान करूँ
ऐसे ही आ आ कर देना आशीर्वाद
तेरे शब्दों का सदा यहाँ गुणगान करूँ..
अजीत कुमार तलवार
मेरठ