चांद बिना श्रृंगार अधुरा
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नभ में गर जो चाँद न होता, सुंदरता किसकी लि खते?
चाँद बिना क्या नभ में तारे, चमकीले ऐसे दिखते?
विरहन इक श्रृंगार से वंचित, दिखती है हमको जैसे।
सोच रहा मन कवि सशंकित, नीशा चमकती फिर वैसे।
बच्चे किसको मामा कहते, दूध भात फिर लाता कौन।
रात स्याह फिर काली होती, जैसे गूंगा रहता मौन।
चाँच बिना जग होता काला,कवि कलम से क्या लिखते?
चाँद बिना क्या नभ में तारे, चमकीले ऐसे दिखते?
उपमायें तरुणी की सोचो, चाँद बिना कैसे देते।
चाँद बिना वर्णन सुंदरता, बोलो हम किससे लेते।
चाँद बिना जग सुना होता, तारों का अस्तित्व नही।
बिना चाँद फिर मानव जीवन होता भी,अभिशप्त कही।
चाँद बिना यह तारे टिमटिम, कलम भला कैसे लिखते?
चाँद बिना क्या नभ में तारे, चमकीले ऐसे दिखते?
बोलो चच्चा पूछ रहा हूँ, गुत्थी क्या सुलझाओगे।
चाँद बिना नभ की परिभाषा, कैसे कर समझाओगे?
कक्का हो तुम ज्ञानवान फिर, मन की संशय दूर करो।
कर संशय का समाधान फिर, उर के सारे कष्ट हरो।
चाँद बिना तुम जग की शोभा, बोलो फिर कैसे लिखते?
चाँद बिना क्या नभ में तारे, चमकीले ऐसे दिखते?
************** स्वरचित
✍️पं.संजीव शुक्ल “सचिन”