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26 Sep 2021 · 4 min read

चलो गाँव चलें

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रास्ते बिखरे थे या मेरा वजूद था बिखरा!
गाँव तो अब भी होता रहा है वैसा हरा-भरा।
वह हरियाली मेरे शरीर का हिस्सा था।
मेरे अस्तित्व का बड़ा मशहूर किस्सा था।
उस हरियाली ने भरे थे मेरे तन में लहू।
उसी ने और भरे मेरे मन में ‘मैं’ हूबहू।
दिए तो हरियाली ने कंद,तना,फूल और फल।
मैंने उसे तोड़-मरोड़कर बना लिया है छल।
रास्ते धूल-धूसरित और उबड-खाबड़ कह-कह।
तीक्ष्ण गर्म,सर्द हवाओं को चिथड़ों से कहके असह।
कोमल मन को कठोर करने हेतु आलोच्य बनाया,
गाँव के रीति-रिवाजों को निम्न व मिथ्या बताया।
अग्रजों के दु:ख भरे दिनों ने शत्रु बना दिया गाँव।
खोजना था हम बच्चों को अपना स्वरचित ठांव।
भोर अच्छा था किन्तु,किलकारियां हमारे थे बेदम।
खगों के बच्चों से भी क्षीण,नभ से फिसलता हरदम।
नये जीवन के लिए बड़ों ने ही उकसाया होगा अवश्य।
नये पथ पर धकेल कर खुश हुए होंगे अपार अवश्य।
जो जीवन जीते उसकी परिकल्पना कठिन नहीं होना था!
गाँव के हर कोने का उद्दंड दु:ख मेरे साथ ही जागना,सोना था।
अध्यात्म का आदिम स्वरूप त्याग और तपस्या है।
जो जीवन बदला है अब वही जीवन की समस्या है।
जीवन का विराम अद्भुद और अत्यंत विस्मयकारी है।
सुंदर और असुन्दर,सक्षम और अक्षम वहाँ नि:संसारी है।
हमने क्षुधातुर हो या सुख की निरन्तरता हेतु छोड़ा था?
नहीं,हमारी कामनाओं ने अदम्य साहस से हमें फोड़ा था।
मैंने कहा था जब कमाऊंगा अच्छा खाऊंगा दादी से।
आज जानता हूँ कैसे बच जाता आत्मिक बर्बादी से।
वह ‘वह’ क्षुधा का अहंकार था,उस अहंकार से बचता तो।
स्वर्ग सा सुख पाने का स्वप्न यदि नहीं रचता तो।
सरल निर्वाह को शासकों ने बनाया है दु:खद और दुरुह।
गाँव तो सिखा ही नहीं पाता युद्ध की दुविधा से होना निर्मूल।
अब गाँव ज्ञान विद्वान तो नहीं धूर्त होता जा रहा जरुर है।
पर,क्या कहें विद्वता को भी आज धूर्त होने का बड़ा गरूर है।
गाँव की धूर्त ज्ञान को विद्वता में परिवर्तित करने को।
चलो गाँव चलें,विद्वता को धूर्तता से निरत करने को।
परिभाषाओं में शब्द जोड़ते-जोड़ते बदल दिया तुमने।
गाँव की अस्मिता को तोड़ने बहुत छल किया तुमने।
स्वयंभू बनना था हमें,अहर्निश हाथों को औजार बना।
तुम युद्ध लड़ते रहे इस औजार को हथियार बना-बना।
युद्ध प्राण पन लड़ता था गाँव, भाग्य नहीं भुजा के कर्म से।
हारे तो हारे विजित होकर भी हारता रहा गाँव स्व धर्म से।
जब गाँव छूटता है तो नहीं छूटता मात्र गली और घर।
जो संस्कार प्रतिष्ठित होता प्राण में उसका उर्ध्व ध्वज।
गाँव की शत्रुता में अहंकार नहीं होता था गुणकर देखें।
गौरव उज्ज्वल रखने लड़ते थे लोग गाँव बनकर देखें।
तिक्तता टिकता था समारोहों के आकर दस्तक देने तक।
अरुचि रहता था बस इनके,उनके नत मस्तक होने तक।
हम कितने हैं तन से,मन से गाँव,तलाशें,खोज कर देखें।
राग,लिप्सा,वैभव,ऐश्वर्य मुक्त,आत्मा को नोंच कर देखें।
अभी गांव मस्त होने में व्यस्त है इन मरीचिकाओं में।
मरीचिकायें किन्तु,हैं ये, या वर्तमान है सभ्यताओं में।
ध्वस्त हो रहा है क्या! गाँव की सभ्यताओं का अतीत।
या वर्तमान जीने को उत्सुक हो रहा है शास्त्रीय संगीत।
मुर्दा जिस्म को श्मसान तक ब्याह के गीत सुनाकर
चलने को प्रस्तुत हो रहा है गाँव ज्यों रीत बनाकर।
ऐसे परिवर्तनों को वर्तमान की परिभाषा से हटाकर,
चलो चलें गाँव वर्तमान बनाएं अतीत को पिघलाकर।
आ गाँव के पहाड़े भी लेते हैं पढ़।
पढ़ लें तो नया कुछ पाएंगे गढ़।
सत्य एके सत्य,सत्य दुनी सुंदर।
सत्य तीने सबके महाशिवशंकर।
सत्य चौके गाँव का महापंचायत।
निर्णय पर भारी भी होता था अर्थ।
सत्य पंचे शोषण का बड़ा था नाच।
ऐसा ही गांव रहा ‘कल’ को है बांच।
सूद का चक्र अति कुटिल था यार।
देता रख जीवन को था चीर-फाड़।
सत्य छठे दुर्भिक्ष का भारी था क्रोध।
सूखे और बाढ़ का नंगा प्रकोप।
था कठिन शत्रु सा जीवन का ढंग।
मृत्यु से लड़ता था हारा हुआ जंग।
खाद्य-अखाद्य,पेय-अपेय;भूख जाय हार।
जंगल के कोख में भी था भूखा आहार।
ऐसे ही जीवन को कह देते निसर्ग।
धूम-धाम,रंग-राग भोगते जो वर्ग।
सत्य सते सत्ता का जो था भागीदार।
छीन,हडप बन गया था जटिल जमीनदार।
उसके उत्पीड़नों की लम्बी-लम्बी सूची।
बालपन में सुना हुआ कहता मैं मोची।
सत्य अठे वर्जनायें अमानवीय था।
रीतियों का निर्धारण दानवीय था।
कुछ का तो श्रम ही था उसकी पहचान।
कुछ का दास होना दासत्व ही प्राण।
स्यात् किसी सभ्यता का असभ्य प्रभाव।
भारतीय संस्कृति थी डरी हुई ‘जनाब’।
भारी था आदमी पर धन,बल का धमक।
विद्रोह किन्तु, कभी-कभी जाता चमक।
सत्य नवें रोग,शोक तंत्र,मंत्र के छाँव।
जड़ी,बूटियां था वैद ऐसा था गाँव।
सत्य दहें राम थे आदर्श गाँव का।
रामचरित बांचना काम रोज शाम का।
इस पहाड़े का गणित समाजशात्र है।
चलो चलें गांव यह संरक्ष्ण का पात्र है।
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Language: Hindi
260 Views
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