चराग़ों की लवें भडकी हुईं हैं
पहाडों से गुज़रना पड रहा है
मुझे चढकर उतरना पड रहा है..!!
चराग़ों की लवें भडकी हुईं हैं
अन्धेरों को बिखरना पड रहा है..!!
उजाले पांव से लिपटे पडे हैं
हवा का सर कुचलना पड रहा है..!!
नदी के हौंसले भी देख आए
समन्दर मे उतरना पड रहा है..!!
मेरी हसरत के क़ातिल तुम नही हो
कोई पुछे मुकरना पड रहा है..!!
बिगडने का तो मौसम हो रहा है
मगर हमको सुधरना पड रहा है..!!
शराफत इतने आगे जा चुकी है
जहालत से गुज़रना पड रहा है..!!
– नासिर राव