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14 Nov 2016 · 1 min read

चक्रव्यूह और मैं !

अब भी कुछ बिगड़ा नहीं हैं,
इतना समय गुज़रा नहीं हैं
पता नहीं की हार होगी,
या फिर होगी विजय;

अब समक्ष दिखता यही बस;
चक्रव्यूह और मैं !

मारा जाऊंगा अभिमन्युवत्,
या कृष्ण के सुदर्शन सा चीर दूंगा
इस धधकती ज्वाला में ,
मैं किन कर्मों का नीर दूंगा;
सोचता हूँ दिन रात, अब बस यह

हैं समक्ष दिखता यही अब,
चक्रव्यूह और मैं !

कोसूंगा असमय हाथ छोड़ने वाले को,
या समझदार हो जाऊंगा
इस मीठी-छलिया दुनियां से,
कहो कैसे पार मैं पाउँगा?
ये रात हुई ‘पक्षपाती’
जाने कब होगी सुबह

अब समक्ष दिखता यही बस;
चक्रव्यूह और मैं !

– © नीरज चौहान

Language: Hindi
387 Views
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