घर
Es pic pe kuch likha maine
घर पे घर, और कितने घर।
आदमी फिर भी दर ब दर।
बोझ ख्वाहिशें का सीने पर
दब नीचे न जाऊँ मैं मर।
कंकरीट का जंगल उगाया
कहूँ कैसे, पेड़ छाँव कर।
भीड़ लगी हर रहगुज़र पे
हर शख्स है तन्हा पर।
इन घरों को बनाने वाले
बाहर है मिलते अक्सर।
भागमभाग लगी है हर पल
रख ले थोड़ा तू सब्र।
मिटता जाता प्रेम मन से
इस पे भी ध्यान तू धर।
Surinder kaur