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29 Jun 2021 · 1 min read

घनाक्षरी

कर श्रंगार वह निकलती जो रात में तो
देह की उजास देख चंद्रिका लजाती है।
नागिन से केश कुंज होंठ पाँखुरी सुकंज
अंग मकरंद गंध रस छलकाती है।
हिरनी सी चाल ढाल लालिमा बिराजै गाल
करती कमाल मेरे मन को लुभाती है।
पूँछती है बार बार प्रेम का सवाल और
फेंक प्रेम जाल नित हमको फसाती है।

अदम्य

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