घनाक्षरी
कर श्रंगार वह निकलती जो रात में तो
देह की उजास देख चंद्रिका लजाती है।
नागिन से केश कुंज होंठ पाँखुरी सुकंज
अंग मकरंद गंध रस छलकाती है।
हिरनी सी चाल ढाल लालिमा बिराजै गाल
करती कमाल मेरे मन को लुभाती है।
पूँछती है बार बार प्रेम का सवाल और
फेंक प्रेम जाल नित हमको फसाती है।
अदम्य