गुलाम
गुलाम
काफी सालो बाद में जब अपने ससुराल से अपने माता पिता के
गाँव मोतीगढ़ गर्मियों की छुट्टी बिताने आयी थी तब मैं मेरे मोहल्ले में रहने वाली मीनाक्षी को काफी नाजुक और डरी और सहमी हालत में रास्ते से गुजरते देख, मेने सोच की उसके घर जाकर पूछू तो सही आखिर वो बचपन मे इतनी हट्टी कट्टी होने के बाद आज सुखी लकड़ी की जैसे क्यों हो गयी है,मैं उसके घर पहुची शाम को एक अंधेरे कमरे में बैठी मीनाक्षी को जैसे ही मेने देखा मैं हतप्रत रह गयी।उसके घर मे सारा सामान भी सब अस्त व्यस्त नजर आ रहा था।मुझे कुछ ठीक नही लगा मेरी नजर उस अंधेरे कमरे की ओर पड़ी
मीनाक्षी को आज मेने एकांत में सिसक सिसक कर रोते देखा तो मुझे रहा नही गया उसके दर्द भरे आँसू मुझे अंदर से सोचने पर मजबूर कर रहे थे कि वह आखिर क्यों इतना रो रही है। मैं पूछ ही बैठी की क्या हुआ क्यों रो रही हो तुम इस अंधेरे कमरे में बैठ कर।*मीनाक्षी*कुछ बताना नही चाहती थी लेकिन मैं उसकी बचपन की सहेली थी
तो शायद इसी विश्वास से उसकी थोड़ी हिम्मत मुझे अपनी दर्द भरी कहानी बताने की बढ़ी।
मीनाक्षी के पिता रामप्रसाद ने गाँव के ही धनीराम से पचास रुपया अपनी पत्नी*सीलादेवी* की बीमारी में इलाज के लिए लिया था। काफी इलाज के बाद भी मीनाक्षी की माँ नही बच सकी।और उसके पिता भी पत्नी के चले जाने के गम में कुछ दिन बाद वो भी भगवान को प्यारे हो गए।अब घर मे मीनाक्षी ही अकेली कमाने वाली रह गई थी।
धनीराम ने तो मीनाक्षी का जीना हराम कर दिया रुपयों के लिए आये दिन परेशान करता था।एक दिन तो वह मीनाक्षी से एक सौदा कर लिया कि तुम्हे मेरे घर मे पचास हजार के बदले पूरी जिंदगी भर
गुलामबन कर काम करना होगा।मीनाक्षी ने उसकी शर्त मान भी लिया लेकिन वो उसे आये दिन छोटी छोटी बात को लेकर ताना कसी करता और तो और कभी कभी उसे काम को लेकर मारता भी था। तब
मीनाक्षी की बाते सुन मुझे तो बहुत दुख हुआ।मेने अपनी बैक खाते से पचास हजार रुपया निकाल कर तुरन्त मीनाक्षी को दे दिया ।और मीनाक्षी ने धनीराम के मुँह पर पचास हजार रुपये फेंक मारे मीनाक्षी को हमेशा हमेशा के लिए उस जालिम धनीराम के चंगुल से छुड़वा लिया।और उसे फिर एक स्वतन्त्र जिंदगी जीने की राह दिखाई।आज मीनाक्षी की शादी भी हो गई और वो अपने परिवार के साथ खुशी से*जिंदगी* जी रही।उसे देख मुझे भी
आत्मशांति और आपार खुशी का अनुभव होता है अगर मैं न होती तो मीनाक्षी तो जिंदगी भर के लिए उस धनीराम की गुलामी की जंजीरों में जकड़ी रहती किसी को चंद रुपयों के खातिर जिंदगी भर के लिये गुलाम बनाना बिल्कुल भी न्याय संगत नही है औरत कोई गुलाम रखने की चीज नही है उसे भी दुनियां में पूरा खुलकर जीने का हक है।
रचनाकार गायत्री सोनू जैन मंदसौर