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20 Aug 2017 · 1 min read

गुऱूर -न दे

वज्न-2122 1122 1212 112/22
ग़ज़ल
मेरे मौला जो भी देना है दे गुरूर-न दे।
मेरे अपनों से ज़ुदा करदे वो सुरूर-न दे।।

तिश्नगी भी न मिटा पाए एक प्यासे की।
ऐसी दौलत का समंदर मेरे हुज़ूर न दे।।

शख़्स हर एक जहां से मुझे लगे अदना ।
ऐसी होती है बुलंदी मुझे जरूर-न दे।।

जो कड़ी धूप में राही को छांव देता नही।
मेरे आंगन के दरख़्तों में वो खजूर न दे।।

तेरे ब़न्दों को लड़ाऊं मैं बांटकर तुझको।
नफ़रतों का मेरे ज़ेहन में ये फितूर-न दें।।

आज भाई ही बना है रकीब भाई का।
एक दरिया के किनारों को इतनी दूर न दे।।

लोग कहते हैं बड़ा बेअदब़”अनीश”हुआ।
मेरे क़िरदार में मौला तू क्यों सऊर-न दे ।।
@nish shah

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