छंदमुक्त कविता
ठोकरें लगने पर भी उठना पड़ता है,
खुशी के लिए बहाना ढूंढ़ना पड़ता है।
मुहम्मद (स.अ.)बुध्द, महावीर बनने के लिए,
घर छोड़ दर-बदर घूमना पड़ता है।
जिन्दगी भर बना रहे रिश्तों में मिठास,
कड़वी बातों को भूलना पड़ता है।
खुबसूरत लिबास से पूछकर के देखें,
कितनी बार सुई से चूभना पड़ता है।
अकेले तो मंजिल तक पहुंच ही जाते,
पिछे अपनों के लिए रुकना पड़ता है।
यूं ही कदमों तले जन्नत नआता “नूरी”
परवरिशे औलाद बेवक्त उठना पड़ता है
नूरफातिमा खातून “नूरी”
23/5/2020