ग़ज़ल
—–ग़ज़ल—-
होके निर्भय जो ——समुंदर में उतर जाता है
मोतियों की वो —चमक पाके निखर जाता है
प्यार के दीप—— दिलों में तो जला कर देखो
उसकी किरणों से घना तम भी गुज़र जाता है
होके निश्छल जो—— बुज़ुर्गों की करेगा सेवा
अपने माँ बाप के वो—-ऋण से उबर जाता है
दिल लगाकर जो करे —–बाग़ की सेवा माली
फिर तो उजड़ा हुआ-उपवन भी सँवर जाता है
प्यार की छोटी सी लौ में —-भी है इतनी शक्ति
इससे हर ओर ——-उजाला सा पसर जाता है
सामना डट के ———-करो सारी परेशानी का
जो भी डर जाता है समझो कि वो मर जाता है
बच के रहता न बुरी लत से यहाँ जो “प्रीतम”
वह तो बस वक़्त —से पहले ही बिख़र जाता है
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)