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26 Jul 2021 · 1 min read

@ग़ज़ल:- वब़ा नहीं ये सियासी ज़ुकाम लगता है…

यूॅं राजनीति में तो साम दाम लगता है।
छुपाने ऐब उसे तामझाम लगता है।।

जहां की नीम में जामुन या आम लगता है।
वहां के वाग का किस्सा तमाम लगता है।।

जुबां खमोश लवों पे लगे हुये ताले।
हरेक शख़्स यहां पर गुलाम लगता है।।

बढ़े लगान कमाई बची न अब आधी।
रियाया लुटती लुटेरा निज़ाम लगता है।।

घरों में क़ैद रखो या हुज़ूम लगवाओ।
वब़ा नहीं ये सियासी ज़ुकाम लगता है।।

सुकूं मिलेगा हमें कैसे बाद मरने के।
पता चला है मसानों में ज़ाम लगता है।।

दिखाते आप जो दिनरात हमें टीवी पर।
हमें ऐ आपका झूठा पयाम लगता है।।

लगे हैं दाग कई ‘कल्प’ जिनके दामन पर।
हरेक दाग पे मेरा ही नाम लगता है।।

✍?अरविंद राजपूत ‘कल्प’

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