गरीबी
जिस तरह शाख से
टूटकर पेड़ की पाती
समय के साथ सूख जाती है
नाव कैसी भी हो मगर
नाविक पथ भूले तो
मंझधार में डूब जाती है
गरीबो के हितैषी आपको
गली छोड़कर मिल जायेंगे
उम्मीद की उन आँखों से
पूछो कभी खेलने वालो
भरे सावन में अक्सर आंखे
गरीब की सूख जाती है
बांटते समाज को नित
जाति, पाखंड और धर्मो में
अमीरी कसर नहीं छोडती
आदतन गरीबी को डसने में
अपने मन को टटोलकर देखो
गरीबी की बात करने वाले”बनारसी”
यह जो राह हम सब ने चुनी है
आखिर वह किस तरफ जाती है