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17 May 2017 · 1 min read

“गरमी की दुपहरी”

गरमी की ये दुपहरी,बनी आग का ताज़।
किरणों से तपती धरा,कैसे होवे काज।
कैसे होवे काज,पसीना तन पर आये।
राह दिखें सब शांत,ह्रदय को कुछ ना भाये।।
कह प्रशांत कविराय,आयगी कब तक नरमी।
नाहक उगले आग,दुपहरी की ये गरमी।

प्रशांत शर्मा “सरल”
नेहरू वार्ड नरसिंहपुर
मोबाइल 9009594797
:

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