गज़ल
ऐक शाम हॅसी अजनबी हो गई,
सांस मेरी भी अनकही हो गई
जो चहेरे थे अभी है कहां,
जिन की परछाई प्यारी हो गई।
हम जब कभी भी गये जो दूर थे,
भिड़ में भी ये तन्हाई तन्हा हो गई।
दिल की कच्ची ज़मी पर वो चले,
और ,झील लहू की गहरी हो गई।
कुछ भी तो ना कहेते कह गयी,
बात उन आंख तक न्यारी हो गयी।
जो वही है बात प्यारी अाज भी
क्यों कहानी ये पुरानी हो गई।
-मनीषा जोबन देसाई