??◆परिवर्तन की गुंज़ाइश◆??
हर तरफ़ नफ़रतों की शम्मा जल रही है।
स्वार्थे-बुद्धी इंसान की तासीर बदल रही है।।
सरेआम होने लगे हैं क़त्ले-आम मुल्क़ में।
इंसानियत डर के आग़ोश में पल रही है।।
हिलने लगी हैं मोहब्बत की दीवारें दोस्त!
ख़बर ही नहीं दिल में बेवफ़ाई चल रही है।।
झुक रही हैं बेबस निग़ाहें ज़ुल्मो-सितम से।
भावना दबी,कुचली-सी हृदय में गल रही है।।
तेरा-मेरा का तसव्वुर दिल में पनप रहा है।
इंसान की इंसानियत इंसान को छल रही है।।
अवसरवादी सोच दिल के हरकोने में बसी।
गिरगिट की तरह वक्त देख बदल रही है।।
भाईभतीजावाद का ज़हर ख़ून में घुल गया।
ईमान की तो यहाँ अर्थी-सी निकल रही हैं।।
काश!इंसान जागे उठे बेईमानी की नींद से।
विश्वास की एक सदा अब भी संभल रही है।।
बुराई की जीत सदा नहीं होती मैंने सुना है।
सच्चाई में जीतने की ताक़त अटल रही है।।
वक्त बदलेगा समझ बढ़ेगी हौंसला रख “प्रीतम”।
परिवर्तन की गुंज़ाइश हमेशा ही सफल रही है।।
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राधेयश्याम….बंगालिया….प्रीतम….कृत