गजल/गीतिका
देख रही मुझको निशाना लगता है
मुझे फँसाने का बहाना लगता है
गलियों में मेरे तेरा आना जाना
बिन पानी तेरा दाल गलाना लगता है
बिन बातों का तेरा मेरे घर आना।
इसमें भी कोई राज पुराना लगता है
देखते हो यूं नजरे भरभर कर मुझको।
जुल्फों में मुझको उलझाना लगता है।
फिर भी तुझपे नजर नहीं जाती मेरी
मुझको तो तेरा अक्स बेगाना लगता है
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”