कविता:..??थी भूलभुलैया..??
थी भूलभुलैया हम ज़िधर चले।
कुछ ज़ख्म भरे कुछ उभर चले।।
ज़िंदगी का मौसम तो शुष्क रहा।
उमड़े जो बादल जाने किधर चले।।
हमने राहों में फूल बिखेरे हरपल।
क़दमों में काँटे आए जिधर चले।।
सिलसिला दिल का धुमिल ही रहा।
हर फ़ैसले पर हमारे नसतर चले।।
गिरगिट लोग तमाशा देखते रहे यूँ।
गाँव को भूल जब भी शहर चले।।
बहरों की दुनिया को क्या समझाएँ।
हम क्या थे और क्या हैं कर चले।।
आँख रखते हैं देखते कुछ नहीं हैं।
भावना को क्यों वो जर्जर कर चले।।
आँख का पानी मरा दिल का सपना।
कहते हैं हम दुनिया का सफ़र चले।।
गंजों को कंघा चाहिए है सुनो यहाँ।
सच का सुखाकर लोग सागर चले।।
जिगर की गर्मी पानी हो गई है भैया।
झूठ का लेकर हैं देखो लस्कर चले।।
कल का कुछ पता नहीं आज भूले।
कद से बड़ा है लेकर बिस्तर चले।।
पत्थर में भगवान ढूँढें हैं गाफ़िल ये।
आदमी का सरेआम क़त्ल कर चले।।
खुद की बेटी,बहन,माँ सर्वोपरि देखें।
दूसरों के मान को चकनाचूर कर चले।।
प्रीतम आदमी समझ समझ न आए।
अहंकार ही देखा है हम जिधर चले।।
…..राधेयश्याम बंगालिया”प्रीतम”
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