खिड़की
भोर भई खिड़की मैं खोली
बड़ी उदास हो मुझसे बोली
पीढ़ कहूँ मैं सुनो सहेली
बड़े हौले से खिड़की बोली………
कभी हृदय के पट को खोलो
सत्य पुंज को कभी टटोलो
बड़ा अंधेर फैल रहा है
कब खोलोगे मन की खिड़की
बड़े हौले से खिड़की बोली………
मैं हूँ झरोखा संस्कृति का
अखण्ड भारत की समृद्धि का
त्याग तपस्या बलिदानों का
सुपक सुपक के भभकी खिड़की
बड़े हौले से खिड़की बोली………
दिनकर को फिर लक्ष्य बनाया
भारत का इतिहास दिखाया
विश्व ज्ञान का केंद्र रही हूँ
आध्यत्म के पतन से सिसकी
बड़े हौले से खिड़की बोली………
अँधा युग था सकल विश्व में
नक्षत्रों कि तब गणना कर डाली
आधुनिकता में फिर क्यों भटकी
संस्कारों की पोथी फिर झटकी
बड़े हौले से खिड़की बोली………
अश्रु पौंछ कर् फिर से बोली……
क्या हुआ है मेरे देश को
सभ्यता के परिवेश को
नौजवानों के नँगे वेश को
भले रामराज्य, कृष्ण की मटकी
बड़े हौले से खिड़की बोली………
राणा, शिवाजी, जीजाबाई
दुर्गावती और लक्ष्मी बाई
भगत अशफाक और विस्मिल को
भाट लगाई क्यों चाणक्य नीति की
बड़े हौले से खिड़की बोली………
क्यों सोये अर्जुन के धनुष आज है?
क्या हुआ पदमिनियों को आज है
क्यों सड़कों पर नँगे नाच है
वन्देमातरम खोलो खिड़की
बड़े हौले से खिड़की बोली………
नहीं निर्भया कभी कहीं हो
स्त्री सम्मान का भाव यहीं हो
जन गण मन अब खोलो खिड़की
बड़े हौले से खिड़की बोली………
फिर से नालन्दा,तक्षशिला बनाओ
पुनः राष्ट्र गौरव को पाओ
करो सम्मान शहीदों का तुम्
जिनसे शोभित तुम्हारी खिड़की
बड़े हौले से खिड़की बोली….