कज़ा और सफ़र (ग़ज़ल)
अपनी ख़ुशी से आये ,ना अपनी ख़ुशी से जाना होगा,
क़ज़ा आ गयी तो संग उसके सफर पर जाना होगा .
लाये क्या थे अपने संग ,जो लेकर जाये कुछ साथ,
जो भी है एशो-इशरत का समां ,सब छोड़कर जाना .
जिस जिस्म पर गुरुर किया ,वोह तो बेमानी था ,
करके उसे सपुर्द -ऐ- खाक ,हमें जाना ही होगा .
रहा कौन है सदा के लिए इस ज़माने में अब तक? ,
उम्र की साँझ ढल रही है रात को भी आना होगा .
दोस्त हो या दुश्मन ! किसने है यहाँ बैठे रहना ,
एक आवाज़ देगा वोह ,हुक्म उसका बजाना होगा .
यह तो सच है की यह ज़माना है सुनहरे रंगों से भरा ,
मगर जिंदगी को अपनी कज़ा का सच भी मानना होगा.