क्षितिज रश्मियाँ
क्षितिज रश्मियाँ सागर तट से, प्रथम आगमन करती हैं।
दूर कहीं ओझल होती हैं, गमन वहीं से करती हैं।
दूर देश को जाने वाले, कर्ज चुकाना माटी का।
इस सुगंध को भूल न जाना, फर्ज निभाना घाटी का ।
दूर कहीं से आएगी वो, पास उसे तुम मत रखना।
पास अगर वह आ जाये तो, याद उसे तुम मत करना।
यह पश्चिम की सूर्य विभायें, नमन वहीं पर करती हैं।
दूर कहीं ओझल होती हैं, गमन वहीं से करती हैं।
क्षितिज रश्मियाँ सागर तट पर, प्रथम आगमन करती है।
धन के लालच में मत आना, मातृभूमि दिल में रखना। जीवनसाथी भूल न जाना, आर्त भाव मन में रखना।
छल प्रपंच में फँसकर साथी, जीवन व्यर्थ नहीं करना।
माँ की याद अगर आ जाये, आँखें गीली मत करना।
ये पश्चिम की चंद्र कलायें, अमन वहीं पर करती हैं।
दूर कहीं ओझल होती हैं, गमन वहीं से करती हैं।
क्षितिज रश्मियाँ सागर तट पर, प्रथम आगमन करती हैं।
सादर।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, “प्रेम”