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8 Feb 2019 · 1 min read

क्या वो भी दिन थे ये कहती हूँ आज

सुनती हूँ आज भी मैं कभी -कभी पापा से ,
उनके बचपन की कहनी।
क्या मजा था उनके समय मे,
करती हूँ मह्सुस पापा की बातो से।
किस तरह रोज सवेरे छ्तो पर मस्ती करते थे,
फिर छलांग लगाकर मी मैं गिरते थे।
ना मो होने का द्र्र था,
और ना पतले होने की बिमारी।
सुनती हूँ आज भी मैं कभी -कभी पापा से,
उनके बचपन की कहनी।
सपताहवाला तीवी था जो सपताह मैं इक बार चलता था,
पर जिस दिन चलता था आन्न्द खूब आता था।
बाजरी की रोती और सरसो का साग था,
पर मा के हाथो का बाजरी के चुरमे का क्या गजब का सवाद था ।
सुनती हूँ आज भी मैं कभी कभी पापा से,
उनके बचपन की कहानी ।
ना फोन का नशा था ना फोन की बिमारी थी,
तभी तो रिश्तो मे मिथास कुछ जयादा थी।
बात करो तो खेलो की क्या गज़ब खेल निराले थे,
गीली दंदा , पक्दमपकदाई यही खेल भाते थे ।
सुनती हूँ आज भी मैं कभी कभी पापा से,
उनके बच्पन की कहनी ।
written by :- babita shekhawat

Language: Hindi
3 Likes · 311 Views
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