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13 Apr 2017 · 2 min read

केदारनाथ त्रासदी पर मेरे व्यथित मन के कुछ उद्गार

केदारनाथ त्रासदी के बाद यात्रा खुलने पर जब मेरा केदारनाथ जाना हुआ तो वहां पहुँचने पर मेरे व्यथित मन के कुछ उद्गार

सिसक रही थीं पहाड़ियाँ बिलख रहा था आसमाँ
छू छू कर हवाएँ मुझसे कर रहीं हर दर्द बयाँ

जब जब कदम को मेरे छू रही थी ये जमीं
चीख उठते जख्म उसके दिख रही थी वो दुखी
हर नज़र में दिख रहा बस यहाँ इक खौफ था
थी उदासी हर जगह पर कहीं न जोश था
शांत सी अब बह रही थी वो ही नदी यहाँ
खूब बरपाया कहर था कभी जिसने यहाँ

सामने मंदिर दिखा वो ही भोले नाथ का
गूंजता भी हर जगह वही घंटों का नाद था
दर्द लेकिन था भरा उसकी भी आवाज में
इक ख़ामोशी थी भरी हर जय जय कार में
दर दीवारों पर लिखी हर जगह देखी वहां
बीते हुए विनाशी पलों की मैंने इक इक दास्ताँ

बैठ गयी मैं आस्था से बाबा के ही पास में
मन बसा लूँ रूप इनका बस लिए इस आस में
रोम रोम ही मेरा बाबा को देख हर्षित हुआ
कुछ मगर मन को मेरे गुपचुप सालता रहा
प्रार्थना की खूब मन से मांग ली उनकी कृपा
ले लिया आशीष उनसे सर वहां अपना नवां

प्रश्न लेकिन थे बहुत कुलबुलाते जब रहे
पूछ बैठी बाबा से ही तुम चुप तब क्यों रहे
लाल जो तेरे पले बड़े थे तेरी ही गोद में
क्यों समा गए सामने तेरे काल की गोद में
नाथ भोले तुम बड़े सब मानते तुमको यहाँ
तो बताओ क्यों रची ऐसी लीला तुमने यहाँ

कलकल बहती ये नदी अठखेलियाँ करती रहती
सबके दिल को ये भाती मनोरम दृश्य भी देती
क्या हुआ आक्रोश ऐसा जो काबू न खुद में रहा
बाबा के दर्शन जो आया नदिया ले गयी साथ बहा
तूने देखा सबकुछ चुप चुप क्यों कुछ भी नहीं किया
गंगा के जैसे नदिया को जटा में नही बाँधा यहाँ

खता हुई गर हम भक्तों से आगाह बस किया होता
क्रुद्ध होकर इस तरह तीसरा नेत्र न खोला होता
क्षमा मांगते हैं अब भगवन भूल जाओ अपराध हमारे
सद्बुद्धि देकर रखो बस सर पर अपना हाथ हमारे
भीगी पलकों से मैंने उन सबको अपना नमन किया
प्राण गंवाये जिन लोगों ने इस आपदा में यहाँ

डॉ अर्चना गुप्ता

Language: Hindi
394 Views
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