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14 Jun 2020 · 1 min read

कृष्ण सो रहे

अपनों में संग्राम छिड़ा है,
चादर ओढ़े कृष्ण सो रहे।।

त्याग चुकी है आज केंचुली,
राजनीति परिभाषाओं की।
ज्येष्ठ मास की धूप सरीखी,
तपे चाँदनी आशाओं की।।

धर्म सरीखे शब्द जगत में,
अपने-अपने अर्थ खो रहे।।

और अधिक की लिए कामना,
दौड़ रहें हैं रात्रि दिवस बस।
मदिरा पर मँडराते हरदम,
नहीं चूसते फूलों का रस।

मीठे आमों की इच्छा ले,
काँटों के ही बीज बो रहे।।

लता प्रेम की कुम्हलायी सी,
हरित द्वेष की नागफनी है।
अनुबंधों में हाँ जी, हाँ जी,
संबंधों से रार ठनी है।।

सूख चुकी आँखों में आँसू,
रिश्तों की नित लाश ढो रहे।।

प्रदीप कुमार

Language: Hindi
Tag: गीत
3 Likes · 2 Comments · 372 Views
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