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30 Jul 2017 · 1 min read

कुछ इस तरह से इश्क़ ने सहरा किया मुझे

आज़ की हासिल
ग़ज़ल
221 2121 1221 212
बह्र – बह्रे मज़ारिअ मुसम्मिन अख़रब मक़फ़ूफ़ महज़ूफ़

जह्रे-जुदाई देके वो मुर्दा किया मुझे
फिर माँ की ही दुआ ने था जिन्दा किया मुझे

मानिन्द रेत के ये फिसलती है जिन्दगी
कुछ इस तरह से इश्क़ ने सहरा किया मुझे

मरहम की जिससे हमको थी उम्मीद आज़ तक
जब भी मिला वो जख़्म ही गहरा किया मुझे

मीठी जुबान होती थी पहले मेरी बहुत
उसके ही तल्ख़ियों ने तो कड़वा किया मुझे

मूरत के जैसे हमनें तराशा है संग को
वो जाने कब कहेगा कि हीरा किया मुझे

सागर ही बन के जिसके मैं दिल में था बस रहा
नज़रों से बस गिरा के वो क़तरा किया मुझे

वादा किया था वस्ल का उसने तो शाम को
पहुंचा मैं जब गली में तो रुसवा किया मुझे

“प्रीतम” समझ रहे थे जिसे अपना हम जहां
उसने ही आज़ दुनिया में रुसवा किया मुझे

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

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