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13 Mar 2020 · 3 min read

कुंडलिया

कुंडलिया छंद

कुंडलिया छंद

वैभव प्रतिभा मैथिली, रहते न मोहताज़।
रौशन करते जगत को, हो जाता आगाज़।।
हो जाता आगाज़, लोक का मान बढ़ाते।
होता जब अवरोध,सूर्य सम शान दिखाते।।
सुन रजनी की बात, कली सम प्यारा शैशव।
धूम मचाते खूब, मैथिली प्रतिभा वैभव।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

कुंडलिया छंद

वैभव से वसुधा लदी, छाई पीत बहार।
देती पुस्तकधारिणी, छंदों का उपहार।।
छंदों का उपहार, ज्ञान दे सृजन कराती।
साहस शील स्वभाव, शक्ति दे मान बढ़ाती।।
सुन रजनी मनुहार, विनय उद्धारे शैशव।
भानु तिलक यश भाल, लोक में फैले वैभव।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

आई होली देख कर ,पले न द्वेष विचार।
दहन होलिका में करो, नफ़रत का व्यवहार।।
नफ़रत का व्यवहार तजो मिल रसिया गाएँ।
बहा नेह रसधार,रसीली प्रीति बढ़ाएँ।।
कह ‘रजनी’ मुस्काय धरा हरियाली छाई।
खूब मचे हुड़दंग रँगीली होली आई।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

साली आई देख के, जीजा हुए निहाल।
भाँति-भाँति रँग देह को, जीजा करें बवाल।।
जीजा करें बवाल,खुमारी दिल पर छाई।
खेली होली साथ ,निकट जब साली पाई।
कह रजनी मुस्काय, चढ़ा ली भंग निराली।
हुआ हाल बदहाल, रँगन जब आई साली।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

कुंडलिया छंद

‘श्रम ही जीवन है ‘

मजदूरी का फांवड़ा ,साहस लेकर साथ।
आत्मतोष श्रम से उठा, लीना लक्कड़ हाथ।।
लीना लक्कड़ हाथ लक्ष्य ले आगे बढ़ती।
कभी न मानी हार, श्रमिक पथ अविरल चलती।।
सुन ‘रजनी’ बतलाय कर्म इसकी मजबूरी।
छिपा नहीं लघु गात करे दिनभर मजदूरी।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

हास्य कुंडलिया
——————–

भाई-भाई लड़ रहे, भुला प्रीति पहचान।
लौकी-बेलन कर रहे, रिश्ते खूब बखान।।
रिश्ते खूब बखान ,चलाते देखे डंडे।
पत्नी करतीं राज, पति सब हो गए ठंडे।।
किससे करूँ बखान, बात अचरज की पाई।
सूरदास है नाम ,लगाते चश्मा भाई।।

चौका बरतन कर रहे, बच्चा गोद खिलाय।
आना-कानी ज्यों करें, गाल तमाचा खाय।।
गाल तमाचा खाय, नाथ सूरत लटकाई।
मोबाइल का दौर, उड़ाती नोट लुगाई।।
समय-समय का फेर,गँवाया तुमने मौका।
सुखभंजन है नाम, कर रहे बरतन चौका।।

ख़ातिर होती देख के, सजन चले ससुराल।
देखी साली सामने, फेंका झट से जाल।।
फेंका झट से जाल, चलाई नैन कटारी।
और बताओ हाल,पूछतीं सास हमारी।।
बीवी आँख दिखाय, सोच ओछी सब खोती।
दो-दो साली साथ, गज़ब की ख़ातिर होती।।

खोया निज परिवार को, दादा दे संत्रास।
राजनीति घर में बसा, उठा दिया विश्वास।।
उठा दिया विश्वास, हृदय के काले पाए।
बैठ कुंडली मार, जगत त्यागी कहलाए।।
सुन ‘रजनी’ बतलाय,नाम अपनों का धोया।
दीनबंधु ने आज,चैन जीवन का खोया।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

कुंडलिया

कहना चाहूँ बात मैं, शब्दों से लाचार।
शब्द हृदय उद्गार हैं, रिश्तों के आधार।
रिश्तों के आधार,बने व्यवहार निभाते।
नमक छिड़कते घाव, यही संताप दिलाते।
कह ‘रजनी’ समझाय ,मौन को मुखरित करना।
शब्द तोल के मोल, कभी अपशब्द न कहना।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

चक्की पीसे भोर में, दूजी भूख मिटाय।
दो पाटन के बीच में, ममता पिसती जाय।
ममता पिसती जाय,स्वजन पर प्यार लुटाती।
अरमानों को पीस, श्रमिक की श्रेणी पाती।
सुन ‘रजनी’ बतलाय, अडिग माँ धुन की पक्की।
घुन सी पिसती जाय, डालकर गेहूँ चक्की।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

कुंडलिया

गुणकारी तरु जान के, बनो बबूल समान।
परहितकारी काज कर,पाता जग में मान।
पाता जग में मान शाख में शूल समाए।
औषधि गुण की खान वैद्य की संज्ञा पाए।
कह ‘रजनी’ समझाय, वृक्ष है ये हितकारी।
गोंद, पात, जड़, छाल बनाते तरु गुणकारी।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’

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