काल के कपाल पर दर्ज़ रहेंगे बी मोहन नेगी के चित्र
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उपरोक्त कविता पोस्टर में पीछे पहाड़ हैं और आगे चट्टान की तरह स्थिर खड़ा सशस्त्र सैनिक जो राष्ट्र की रक्षा को तत्पर है। मानो कवि ने इस चित्र को देखकर इस कविता का सृजन किया हो। ये कविता हिंदी के ख्यातनाम कवि बाबा नागार्जुन ने “वीर-बाँकुरे गढ़वाली” शीर्षक से रची थी। इस बात का पता मुझे बी० मोहन नेगी द्वारा बनाये गए कविता पोस्टर से ही मालूम पड़ा। यूँ तो बृज मोहन नेगी जी के नाम और काम के विषय में बरसों से सुनता रहा था। उनकी कला से मेरा वास्तविक परिचय, अल्मोड़ा भवन, साउथ एक्सटेंशन, दिल्ली में हुआ। जहाँ प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक सुवर्ण रावत जी थिएटर हेतु ग्रीष्मकालीन कार्यशाला से लेकर वीकेंड थिएटर कक्षाएँ कई वर्षों से नियमित रूप से चला रहे हैं। वहां हमारे साहेबजादे सचिन भण्डारी ‘ढोल के बोल’ साहित्यकार महावीर रवांल्टा जी की कहानी पर आधारित नाटक हेतु कार्यशाला में अभिनय प्रशिक्षण ले रहे थे। अतः मैं भी नियमित रूप से अपने सुपुत्र के साथ अल्मोड़ा भवन आता-जाता था। जहाँ कई कवितायेँ चित्र, पोस्टर और उत्तराखण्ड की संस्कृति से जुडी तस्वीरें पेस्टबोर्डों की शोभा बढ़ा रहीं थीं। सभी एक से बढ़कर एक। उनमें से अधिकांश बृज मोहन नेगी जी की पोस्टर कवितायेँ थीं। हर चित्र के कोने में बी मोहन नेगी के हस्ताक्षर थे।
अतः मैंने उनकी कलाकृतियों को पत्र-पत्रिकाओं से लेकर इंटरनेट में खंगालना शुरू कर दिया। उनका काम देखकर मैं दंग रह गया! होश फाख्ता हो गए! और आँखें विस्मय से फटी की फटी रह गयीं! क्या उत्तराखंड में भी ऐसी हस्तियाँ हैं? या हो सकती हैं! उत्तराखंड की क्षेत्रीय पत्रिकाओं से लेकर हिंदी की अति प्रतिष्ठित ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘सारिका’, ‘इंद्रप्रस्थ भरती’, ‘पाखी’, ‘आजकल’, ‘आधारशिला’, ‘पहल’, ‘नवनीत’, ‘अक्षरपर्व’ आदि अनगिनित पत्र-पत्रिकाओं के कई अंकों में वह अपने चित्रों द्वारा छाये हुए थे। इतना ही नहीं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में वह कला संपादक के रूप में भी स्थान बनाये हुए थे। उन्होंने जौनसारी, रंवाल्टा, गढ़वाली व कुमाऊंनी के क्षेत्रीय कवच को तोड़कर अनेक भाषाओँ हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी, नेपाली, बंगाली आदि कविताओं पर कई यादगार पोस्टर बनाये। उनके चित्रों की प्रदर्शनी सन 1984 से विभिन्न शहरों में आयोजित होती रही।उत्तराखण्ड में तो हर प्रदर्शनी में उनके चित्र प्रमुखता के साथ प्रस्तुत होते ही थे। साथ ही साथ देश के प्रमुख शहरों दिल्ली, मुम्बई और लखनऊ आदि में भी अक्सर उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगाई जाती थी। जिसके लिए उन्हें समय-समय पर सम्मानित भी किया गया। उन में से कुछ सम्मान ये हैं—’देवभूमि सम्मान’ (नई दिल्ली); ‘हिमगिरी सम्मान’ (देहरादून); लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल सम्मान (उत्तरकाशी); ‘चंद्रकुँवर बर्त्वाल सम्मान’ (देहरादून); ‘छुँयाल सम्मान’ (पौड़ी); ‘मोनाल सम्मान’ (लखनऊ); ‘कवि कन्हैयालाल डंडरियाल सम्मान’ (दिल्ली); ‘भारत कैसेट सम्मान’ (पौड़ी); ‘उत्तराखण्ड निराला’ (जयपुर); ‘प्रकाश पुरोहित जयदीप स्मृति सम्मान (गोपेश्वर)’ व ‘गढ़ विभूति सम्मान’ आदि प्रमुख हैं। सम्मान किसी भी कला की या कलाकार की मुख्य पहचान नहीं होती। उसकी असली पहचान उसके किये काम से होती है। नेगी जी का काम दिखता ही नहीं वरन बोलता है। उनके चित्रों की खास बात है वे पहाड़ों के जन-जीवन की संजीदगी से भरे पड़े हैं। वह संजीदगी जो उत्तराखण्ड में यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरी पड़ी है।
बी मोहन नेगी की चित्रकला पर अनेक देशी-विदेशी चित्रकारों की कला का काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने जहाँ से जो मिला—लिया (आत्मसात किया) और उससे सीखा। वे मौलाराम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा रविवर्मा और अपने समकालीन मॉर्डन आर्ट का हुनर रखने वाले कलाकारों से अत्यधिक प्रभावित थे। गुरुदेव टैगोर की अनेक कविताओं के पोस्टर उन्होंने बड़ी अभिरुचि के साथ बनायें हैं; जो चित्रों के माध्यम से उस नॉवेल पुरस्कार प्राप्त कवि को श्रद्धांजलि है। नेगी जी ने सबसे ज़ियादा चित्र (लगभग 100 कविता पोस्टर) उत्तराखण्ड के सर्वधिक लोकप्रिय जन कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की रचनाओं पर बनाये हैं। वीरेन डंगवाल, जगूड़ी, नरेंद्र नेगी, गिरदा, चंद्रकुँवर बर्त्वाल के अलावा अपने दौर के असंख्य रचनाकारों की रचनाओं को अपने चित्रों में उतरकर अजर-अमर कर दिया। उनके पास स्वयं के निजी पुस्तकालय में पुराने अख़बारों, पत्रों, पत्रिकाओं और देश-विदेश के चित्रों-चित्रकारों से जुड़े अत्यन्त दुर्लभ दस्तावेज़ों का विपुल भण्डार मौज़ूद रहा। इसे वह किसी अबोध बालक की तरह वर्षों से बड़ी तन्मयता से संग्रहित करते रहे। जिस कारण वे पुस्तकों के मुख्य पृष्ट से लेकर, प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियाँ, पोटरेट, मिनिएचर्स, कार्टून, रेखाचित्र, पेपर मैसी वर्क, भोजपत्र पर चित्रकारी, मुखौटे व कोलाज पर सहजता से नए प्रयोग कर लेते थे। यह उनकी कला के प्रति गहरी रूचि को दर्शाता है। जहाँ अधिकांश कलाकार स्वयं को एक ही सांचे में ढाल लेते हैं; वहीँ नेगी जी किसी एक चीज़ में बांधकर नहीं रहे। अपितु हर गुज़रते क्षण के साथ नए आयामों को छूते चले गए। उनका निज़ी कलेक्शन देखकर, अक्सर उनके घर में आने वाले लोग कहते थे,”नेगी जी, ये क्या कबाड़ (पुराने अख़बार, कतरने व पत्र-पत्रिकायें) एकत्रित कर रखा है आपने?” वह सलोनी मुस्कान के साथ गढ़वाली में कहते,”भुलु संसारमा कुई चीज़ कबाड़ नी हूंद, बल्कि अस्ल कलाकार वे त्या बोलदीं—जू कबाड़ म भी जुगाड़ कैर सकदू। (भाई संसार में कोई चीज़ कबाड़ नहीं होती, बल्कि असली कलाकार वो ही है—जो कबाड़ में भी जुगाड़ कर सके।)” ये कथन उनकी कला के प्रति दीवानगी दर्शाने के लिए पर्याप्त है। नेगी जी जितने कुशल चित्रकार थे उसे कहीं ज़ियादा उनकी साहित्यिक, सामाजिक और राजनैतिक समझ विकसित थी। उनकी व्यंग्यात्मक दृष्टि उनके बनाये अनेक कविता पोस्टरों में झलकती है। कला के अलावा नेगी जी को फोटो खिंचवाने; विभिन्न देशों की मुद्राएँ-सिक्के और डाक टिकट संग्रह करने का भी बेहद शौक़ था।
उनकी रचनात्मकता पर प्रकाश डालते हुए उनके 35 वर्ष पुराने मित्र गोविन्द पन्त ‘राजू’ कहते हैं, “रेखाओं और अक्षरों की कलाकारी उनका समर्पण था और इसमें सुधार के लिए वे निरन्तर अध्ययन करते रहते थे। चाय की दुकानों के पुराने अख़बार, ख़ाली अख़बारी लिफ़ाफ़ों, पुरानी पत्रिकाओं के साथ अनेक छोटी-बड़ी साहित्यिक और अनियतकालीन पत्रिकाओं से वे अपने कार्य की विषय वस्तु तलाश लेते थे। उनके रचनाकार, कलाकार मन में समाज, परिवेश और पहाड़ के प्रति गहरा लगाव था और इसका प्रमाण उनके कविता पोस्टरों से लेकर छोटे-छोटे कविता चित्रों तक में हर जगह देखा जा सकता था। उनके बनाये हज़ारों पोस्टर, कविता चित्र, कार्टून तथा सामान्य चित्रों से लेकर उनकी टिप्पणियों और कविताओं में हर जगह उनकी जन पक्षधरता और आम आदमी की छटपटाहट बहुत साफ़ नज़र आती है।” आगे गोविन्द पन्त ‘राजू’ जी बताते हैं, “उन दिनों जब वे गोपेश्वर में नई नौकरी में आये थे, तब राजेन्द्र टोडरिया भी गोपेश्वर में नौकरी करते हुए रचनात्मकता की अलख जगाने में जुटा था। गोपेश्वर की बौद्धिक भूमि तब बहुत ही ऊर्बर थी और इसी ऊर्बर भूमि में बी मोहन नेगी की कलाकार छटपटाहट को विकसित होने का पूरा अवसर मिला। राजेंद्र के गोपेश्वर मन्दिर के पास वाले कमरे में अक्सर शामों को कवि, कलाकारों और युवाओं का जमावड़ा होता और बी मोहन उसका ज़रूरी हिस्सा होते। उनके झोले में कुछ कविता पोस्टर, कुछ पत्रिकाएं होतीं और इन पत्रिकाओं के बीच में होते उनके बनाये छोटे-छोटे स्केच और कविता चित्र। उन दिनों वे स्केच पेन का भी खूब इस्तेमाल करते थे। सम्भवतः इसी दौर में गोपेश्वर कॉलेज के छात्रसंघ के एक कार्यक्रम में उनकी पहली, कविता पोस्टर व चित्र प्रदर्शनी लगी थी। इसकी स्वीकार्यता ने उनके अंदर ख़ूब जोश भर दिया।”
बृजमोहन के पच्चीस वर्ष पुराने एक और मित्र एल० मोहन कोठियाल बोलते हैं, “वर्ष 1992 ईस्वी में मेरा बृज से परिचय हुआ, जब वे 25 मार्च को प्रथम उमेश डोभाल स्मृति समारोह में गोपेश्वर आये थे। उनकी तब की बहुत ही धुंधली सी याद मेरे मन में है। कुछ साल तक गोपेश्वर और फिर गोचर के डाकघर में रहने के बाद जब वे पौड़ी आये, तभी उनसे अधिक अंतरंगता हुयी। डाकघर पौड़ी में वे कई डेस्कों पर रहे। जब डाक छंटाई अनुभग में थे तो कई बार उनके पास जाने का अवसर होता था। कई ऐसे पत्र आते थे, जिन पर पता पूरा नहीं होता था या अन्य त्रुटियाँ होती थीं। वे उन पर पेंसे अपनी टिप्पणियाँ लिख कर पिन कोड लिखने या हस्तलिपि सुधारने की ताक़ीद किया करते थे।” आगे कोठियाल जी बताते हैं, “पौड़ी में उस समय जुझारू व्यक्तियों का दौर था। किसी ग़लत बात पर चुप बैठना यहाँ की फिजाँ में नहीं था। बात-बात पर आंदोलन के लिए सड़कों पर निकलना आम था। तब सरकार को झुकना होता था। रचनाधर्मी लोगों की भी कोई कमी न थी। न कवि-लेखक कम थे और न ही उनके मुरीद। कुछ समय देहरादून में काटने के बाद नेगी जी ने पौड़ी में ही आशियाना बनाना तय किया। पहले वे गढ़वाली नहीं जानते थे, लेकिन बाद में न केवल उन्होंने इसे सीखा बल्कि इसमें दक्षता भी हासिल की।”
सन 2009 ईस्वी में नेगी जी सरकारी सेवा से निवृत हुए और पूरी तरह अपने शौक़ को समर्पित हो गए। उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी बख़ूबी निभाई। इस कलाकार के जीवन की कुछ निजि बातें यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए दी जा रही हैं। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक बृजमोहन नेगी जी 26 अगस्त 1952 ईस्वी को चुक्खुवाला, देहरादून में जन्मे। पिता भवानी सिंह नेगी और माता जमना देवी की आँखों के तारे बने रहे। परिवार में आपकी धर्मपत्नी कल्पेश्वरी देवी के अलावा दो पुत्र आशीष, अजयमोहन व दो पुत्रियाँ शिवानी, हिमानी हैं। अन्तिम दिनों में नेगी जी चुक्खुवाला, अपने पैतृक आवास आ गए थे। मई के बाद उनको स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्क्तें आने लगीं थीं। इसके उपरांत रूटीन चेकअप के लिए जुलाई में वह देहरादून आ गए। उन्हें थायराइड व यूरिक ऐसिड की समस्या थी। सितंबर तक आते-आते वे काफ़ी कमजोर हो चले थे। 27 सितंबर को उनके छोटे बेटे का पौड़ी में विवाह भी सम्पन हुआ था। इस दिन उनके परम मित्र कोठियाल जी (जो अक्सर उनसे फोन पर भी वार्तालाप करते रहते थे।) एक घण्टे उनके साथ बैठे रहे। उन्हें नेगी जी बेहद बुझे-बुझे से लगे। 23 अक्टूबर 2017 को कोठियाल जी से नेगी जी की अन्तिम बार बात हुई, “क्या करूँ? इलाज चल रहा है किन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा है।” उनकी भतीजी सपना ने बताया कि, “निमोनिया हो गया था, जो बिगड़ गया। नेहरू कॉलोनी के चारधाम अस्पताल के डॉ० के० पी० जोशी से उनका नियमित इलाज चल रहा है। बुधवार रात साढ़े नौ बजे हालत बिगड़ने पर मामाजी को अस्पताल ले जाया गया। इस बीच उन्हें दिल का दौरा भी पड़ा। जिस पर परिजन उन्हें कैलाश अस्पताल ले गए। उनका ईसीजी हुआ, मगर स्थिति गंभीर होने पर चिकित्स्कों ने उन्हें सीएमआई जाने की सलाह दी। ये सब हो पता इससे पहले ही बी मोहन नेगी जी का निधन हो गया। 25 अक्टूबर 2017 की रात्रि को उन्होंने अन्तिम साँस ली। जहाँ हरिद्वार में उनकी अंत्येष्टि से लौटने वाले कोठियाल जी मन से अब भी मानने को तैयार नहीं कि, “यह महान कलाकार कभी लौटकर वापिस नहीं आएगा!” कोठियाल जी की स्मृति में 29-30 अप्रैल 2017 को बनबसा में हुए 27वें उमेश डोभाल स्मृति की याद ताज़ा हो उठती है। जहाँ उन्होंने अन्तिम बार नेगी जी को प्रसन्नचित मुद्रा में देखा था। उन्हें देखकर लगता था कि अभी दो-तीन दशक तक वे और जियेंगे। लेकिन नियति के चक्र को कौन बदल सकता है? इंसांन मृत्युलोक में आया ही मरने के लिए है। कोई-कोई विरले ही इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा पाते हैं। निश्चय ही बी मोहन नेगी अपनी कला के ज़रिये सदियों तक ज़िंदा रहेंगे। मुझे ग़ालिब का एक शेर याद आ रहा है :–
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाईयो ‘असद’
आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है
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(आलेख संदर्भ:— अख़बारों/पत्र-पत्रिकों की कतरने व विकिपीडिया से प्राप्त जानकारियों के आधार पर)