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9 Oct 2020 · 1 min read

काला कऊआ

उस रोज़
हम दो
मैं और वो काला कऊआ
उस टीले पर बैठे थे
निरस्त से
कहीं खोये खोये से
अजनबी बन
उसने मुझे देखा
मैंने उसे
वो गुमसुम था
बहुत देर से
अकेला
मेरी तरह
सहसा इक हलचल हुई
वो ठिठका
और लपक कर उड़ गया
दूसरे ठोर की ओर
मैं ताकता रह गया
उसी टीले की ओर
जहां हम दो थे
उस रोज़▪︎▪︎
मनोज शर्मा

Language: Hindi
2 Likes · 345 Views
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