कांक्रीट के जंगल
जल जंगल जमीन मिटाकर, कांक्रीट से भर डाला
ऊंचाई विकास की होड़ में, हमने यह क्या कर डाला
धरती पानी और हवा में, जहर बहुत भर डाला
कब रुकेगी यह बर्बादी, कब प्रकृति की सोचेंगे
अंधी दौड़ में शामिल दुनिया, जीवन की कब सोचेंगे?
सब से यही सवाल है मेरा, क्या घुट घुट कर जीना है?
आखिर कब तक प्रदूषण का, जहर और पीना है?
आने वाली संतानों को, कितना जहर और देना है?
सुरेश कुमार चतुर्वेदी