Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
4 May 2017 · 5 min read

कहानी

वक़्त एक चाबुक है
+रमेशराज
——————————————-
पारबती है ही कुछ ऐसी, भूख से लड़ती है, भूख और बढ़ती है। गरीबी उसकी विवशता का जितना ढिंढोरा पीटने का दावा भरती है, वह उतना ही उसे निःशब्द करने का प्रयास करती है। फिर भी किसी न किसी के कानों तक इस जंग लगे लोहे के फूटे कनस्तर की आवाज़ पहुंच ही जाती है, लोगों के चेहरे पर सहानुभूति की लहर उभर आती है।
मैं पारबती का पड़ौसी हूं, ज्यादातर ये आवाजें मेरे कानों में पिघला हुआ तारकोल-सा भरने लगती हैं। मैं जैसे एक तारकोल की पक्की सड़क होकर रह जाता हूं, जिस पर होकर कई वाहन धड़धड़ाते हुए-से निकलते हैं, एक साथ कई प्रश्न जीते-मरते हैं। ‘‘साली… हरामखोर. जब आऊं तब… आटे, नमक, तेल, मिर्च का रोना ले बैठती है… साड़ी फट गयी है तो कहां से लाऊं नयी साड़ी… रजाई….खाट टूट गयी है तो मैं क्या करूं… अपने बाप को चिट्ठी लिख दे, दे जायेगा नयी रजाई…।… न कभी प्यार… न कभी चेहरे पर मुन्नीबाई जैसी मुस्कान-… ये नहीं वो नहीं बस यही रट लगाये रहती है।’’ शराब के नशे में धुत नथुआ हर रात ही मुन्नीबाई के कोठे से आने के बाद बड़बड़ाता है, बेचारी पारबती पर हाथ उठाता है।
‘‘तुम जुआ खेलना क्यों नहीं छोड़ देते?’’ पारबती चूल्हा फूंकते-फूंकते चेहरे पर आये पसीने और आंख से छलछलाते आंसुओं को पौंछते हुए कहती है।
‘‘यूं ही खेलूँगा जुआ….तू कौन होती है मुझे रोकने वाली… ।“
नथुआ की हिचकीदार खड़खड़ाती आवाज़ तीर की तरह मेरे कानों में आती है, हाथों में लगी किताब छूट जाती है। मैं मेज पर रखी चारमीनार की डिब्बी उठाकर उसमें से एक सिगरेट सुलगाता हूं, उसे पानी की तरह गटागट पी जाता हूं।
ग़रीबी होती ही कुछ ऐसी है, ढोलक-से बजने वाले आदमी को टीन के फूटे हुए कनस्तर-सा बजा देती है। गली, चौराहे, शहर में, गांव में नंगा नचा देती है। इसीलिए पारबती घर से कम ही निकलती है, सुबह अंधेरे में ही खाना बना लेती है। ‘आज क्या बना है?’ यह खबर किसी को नहीं लगने देती है।
‘‘भाभी आज क्या बनाया है?’’ मै पारबती के घर सुबह-सुबह पहुंचकर टोही अंदाज़ में सवाल करता हूं।
‘‘ उड़द की दाल और चपाती।’’ वह संकुचाते-से स्वर में बोलती है।
‘‘है कुछ… बहुत भूख लगी है।’’
‘‘क्या बताऊं लालाजी… रात उन्होंने भांग खा ली थी… वह कुछ ज्यादा ही खा गये।’’ पारबती बहाने बनाती है, चेहरे पर अफ़सोस के नकली भाव लाती है।
‘‘झूठ क्यों बोलती हो भाभी… सच बात तो यह है कि आज तुमने कुछ बनाया ही नहीं है…।’’ पारबती मेरी बात सुनकर निरुत्तर-सी हो जाती है… निरंतर जमीन पर अपने पैर के अंगूठे को रगड़ने लगती है।
‘‘भाभी यदि घर में आटा-दाल न हो तो कुछ दे जाऊं…?
‘‘ नहीं… नहीं ऐसी कोई बात नहीं है… वैसे भी हमारी परेशानी में तुम क्यों कष्ट उठाते हो….।’’ यह कहते-कहते वह एकदम अंगारे-सी दहक जाती है।
मैं जानता हूं पारबती जितनी गरीब है, उतनी ही स्वाभिमानी भी। भूख से टूटती रहेगी, बिलबिलायेगी नहीं। किसी को भी बदमिजाज़ वक्त के चाबुक के जख्म दिखलायेगी नहीं| मैं विषय को बदल देता हूं-
‘‘भाभी तुम भइया को समझाती क्यों नहीं कि वह कुछ काम-धाम किया करें… ऐसा कब तक चलता रहेगा… वे दिन-रात या तो जुआ खेलते रहते हैं या मुन्नीबाई के कोठे पर पड़े रहते हैं… भाभी यूं ही कब तक इन अत्याचारों को सहन करती रहोगी… कुछ तो हिम्मत पैदा करो अपने अंदर…।’’
‘‘मेरी मानें तब न।’’ पारबती परास्त-से स्वर में बोलती है।
——–
कड़ाके की सर्दी पड़ रही है, लोगों की काया कपड़ों में भी अकड़ रही है, लेकिन पारबती है कि इस जटिल परिस्थिति से भी लड़ रही है तो लड़ रही है। पारबती के पास पहनने के नाम पर सिर्फ़ एक फटी हुई-सी धोती है, उफ् बहुत बुरी चीज़ गरीबी होती है। आंगन में जब दोपहर को धूप चढ़ आती है, पारबती खाट की ओट कर तभी नहाती है। क्या करे बेचारी, एक और धोती की कमी हमेशा रहती है, बेचारी पारबती बड़े दुःख सहती है।
जब वह इस घर में व्याहकर आयी थी, बिलकुल गुलाब के फूल-सी काया थी पारबती की। गहनों से लदी हुई, आंखों में महीन-महीन काजल, छमछमाती पायल, मन जैसे उड़ता हुआ कोई आवारा बादल। जो एक बार देख ले तो देखता ही रह जाये, बिना पलक झपकाये।
गहने साड़ियाँ, पारबती की खुशियां… सब कुछ तो बेच डाला शराबी नथुआ ने।
——-
आज पारबती के पिता आये है। पारबती के चेहरे पर एक मुद्दत के बाद देखी है, पहले जैसी चमक… चाल में हिरनी जैसी लचक।
मैं पारबती के पिता के पास पहुंच जाता हूं। उन्हें पारबती की बदहाली से अवगत कराता हूं-
‘‘पिताजी, भाभी आजकल बहुत कष्टों में जिंदगी गुज़ार रही है… भाभी के पास सिर्फ एक फटी हुई-सी धोती है… एक फटी हुई रजाई है… रात-भर बेचारी ठंड से अकड़ती है… घर पर छायी ग़रीबी से लड़ती है।’’
मेरी बात सुनकर पारबती के पिता भौंचक्के रह जाते हैं, पारबती को बुलाते हैं-
‘‘बेटी जो कुछ ये मोहन बाबू कह रहे हैं, क्या यह सब सच है?’’
‘‘झूठ बोलते हैं ये पिताजी, मेरे पास किसी भी चीज, की कोई कमी नहीं।’’
‘‘अच्छा, ला दिखा तेरे पास रात को ओढ़ने के लिये कौन-कौन के कपड़े हैं?’’ पारबती कोई उत्तर नहीं देती है |
‘‘ ला दिखा न!’’ पिताजी पुनः बोलते हैं। पारबती अब भी चुप है।
पिताजी कमरे में अंदर घुस जाते हैं, एक-एक कपड़े को टटोलने लगते हैं। फटी हुई रजाई की तह खोलने लगते हैं।
——–
पिताजी रजाई भरवा गये हैं, पारबती को नयी साड़ी दिलवा गये हैं। आज बेहद खुश है पारबती। शाम हुए गुनगुनाते हुए घर को बुहार रही है, गरीबी के गाल पर तमाचे-से मार रही है।
——–
रात के 12 बजे हैं। नथुआ घर आया है, साथ में दारू की एक बोतल लाया है।
‘‘पारबती साड़ी में….! नयी रजाई खाट पर…।’’ हैरत से बोलता है, पारबती के के बदन को धीरे से टटोलता है। हिचकियां लेते हुए खुश होकर बोलता है-
‘‘कहां से आया ये सब!’’
“ पिताजी आये थे ….| “ थोड़ा-सा सहमते हुए पारबती बोलती है |
“ तेरा बाप बड़ा अच्छा है….. | चल एक काम कर …ये नयी रजाई मुझे दे-दे..तू पुरानी रजाई में सोजा मेरी प्यारी बुलबुल …..|”
————-
रात बढ़ती जा रही है ..नथुआ गर्मा रहा है …पारबती ठंडा रही है ..मैं सिगरेट सुलगाता हूँ ..उसे पानी की तरह गटागट पी जाता हूँ |
—————————————————————————–
रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

Language: Hindi
497 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
इंसानियत
इंसानियत
साहित्य गौरव
इन टिमटिमाते तारों का भी अपना एक वजूद होता है
इन टिमटिमाते तारों का भी अपना एक वजूद होता है
ruby kumari
सफलता
सफलता
Dr. Pradeep Kumar Sharma
ईमानदारी की ज़मीन चांद है!
ईमानदारी की ज़मीन चांद है!
Dr MusafiR BaithA
■ एकाकी जीवन
■ एकाकी जीवन
*Author प्रणय प्रभात*
24/248. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
24/248. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
पूरे शहर का सबसे समझदार इंसान नादान बन जाता है,
पूरे शहर का सबसे समझदार इंसान नादान बन जाता है,
Rajesh Kumar Arjun
बेवक़ूफ़
बेवक़ूफ़
Otteri Selvakumar
अंतिम इच्छा
अंतिम इच्छा
Shekhar Chandra Mitra
अभिनेता वह है जो अपने अभिनय से समाज में सकारात्मक प्रभाव छोड
अभिनेता वह है जो अपने अभिनय से समाज में सकारात्मक प्रभाव छोड
Rj Anand Prajapati
💐प्रेम कौतुक-388💐
💐प्रेम कौतुक-388💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
हिंदी का सम्मान
हिंदी का सम्मान
Arti Bhadauria
मन की गति
मन की गति
Dr. Kishan tandon kranti
जल बचाओ, ना बहाओ।
जल बचाओ, ना बहाओ।
Buddha Prakash
*सरल सुकोमल अन्तर्मन ही, संतों की पहचान है (गीत)*
*सरल सुकोमल अन्तर्मन ही, संतों की पहचान है (गीत)*
Ravi Prakash
Thought
Thought
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
रस्म उल्फत की यह एक गुनाह में हर बार करु।
रस्म उल्फत की यह एक गुनाह में हर बार करु।
Phool gufran
आते ही ख़याल तेरा आँखों में तस्वीर बन जाती है,
आते ही ख़याल तेरा आँखों में तस्वीर बन जाती है,
डी. के. निवातिया
* कभी दूरियों को *
* कभी दूरियों को *
surenderpal vaidya
देश और जनता~
देश और जनता~
दिनेश एल० "जैहिंद"
गोलू देवता मूर्ति स्थापना समारोह ।
गोलू देवता मूर्ति स्थापना समारोह ।
श्याम सिंह बिष्ट
अपने ही हाथों
अपने ही हाथों
Dr fauzia Naseem shad
चाहिए
चाहिए
Punam Pande
चल विजय पथ
चल विजय पथ
Satish Srijan
हमने तो उड़ान भर ली सूरज को पाने की,
हमने तो उड़ान भर ली सूरज को पाने की,
Vishal babu (vishu)
नियति
नियति
Shyam Sundar Subramanian
एक अबोध बालक
एक अबोध बालक
DR ARUN KUMAR SHASTRI
सफाई इस तरह कुछ मुझसे दिए जा रहे हो।
सफाई इस तरह कुछ मुझसे दिए जा रहे हो।
Manoj Mahato
कविताश्री
कविताश्री
Jeewan Singh 'जीवनसवारो'
"समय का महत्व"
Yogendra Chaturwedi
Loading...