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27 Sep 2017 · 1 min read

कविता

जो छाया सफलता का तुझपे सुरूर है
संभलकर दिवाने कदम आगे रखना,
यही धीरे धीरे बनता घमंड और गुरूर है।
खामोशियों का समंदर उबलता ज़रूर है
समय है रेत सा,हाथों से फिसलता ज़रूर है
देखा है हमने आसमां को ख़ाक में ढकते
ये वक्त है नीलम बदलता ज़रूर है।

ईश्वर की लाठी नहीं शोर करती,
पड़े जब कभी ग़र किसी को यह लाठी
फिर चाहे वो हो गूंगा मगर बोलता ज़रूर है।
न जाने क्यों फिर भी सब नीलम मगरूर हैं
है इंसानी फितरत यही है हकीकत
न तेरा कसूर है न मेरा कसूर है।

नीलम शर्मा

Language: Hindi
294 Views
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