काव्य पाठ
विराजे हैं जो डायस पर उन्हें मेरा नमन शत् शत्।
विराजे हैं जो कुर्सी पर उन्हें मेरा नमन शत् शत्।।
महज़ इक मातु अंबे है जो देती दास को सब कुछ,
विराजी है जो अक्षर में उन्हें मेरा नमन शत् शत्।।
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न बांटों मजहबों में अब वतन को ऐ मिरे यारों।,
हवा स्वच्छंद बहने दो न रोको ऐ मिरे यारों।
सभी अब तोड़ दो बंधन धरम अरु जाति के लोगों,
बढ़ो बस विश्व में आगेन रोको ऐ मिरे यारों।।
???
चाय पिलाकर कर दिया, चीनी से अब दूर।
कैसे अब काफी पिएं, बिल्कुल हैं मजबूर।
बिल्कुल हैं मजबूर , नहीं अब कुछ भी भाता।
रक्त चाप बढ जाय , कहें हम इसको टाटा।।
कहै अटल कविराय,चाय से दूरी कर लो।
मित्र मान लो बात, ध्यान में इसको धर लो।
शारदे को नमन!
काव्य करूॅ प्रारंभ मां, लेकर तेरा नाम।
शब्द-शब्द में तुम बसो,भजूॅ सदा अविराम।।(१)
छंद ज्ञान कुछ है नहीं, मूढ़ मति अज्ञान।
कुछ अनुपम मैं भी लिखूॅ,दे दो मां वरदान।।(२)
शब्द-शब्द में मां भरो,कुछ अनुपम संगीत।
मैं भी कुछ ऐसा रचूॅ,बदल जाय जग रीत।।(३)
छंद गंध बनकर बहे,मेरा हर इक बोल।
धुॅधला है मन का पटल,ज्ञान चक्षु दे खोल।।(४)
सुप्रभात मित्रों ?❤️?
गौवर्धन महाराज की, बोलें जय जयकार।
गौ माता इस जगत के, जीवन का आधार।।
दूध दही माखन मिले, मिलता जैविक खाद।
औषधीय गुण हैं बहुत,स्वस्थ रहे संसार।।
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सर्दी की ठिठुरन गयी,आया है मधुमास।
रवि रथ पर आरूढ हो,बंधा रहा है आस।
पूरब से निकला सहज, हुआ शुभ्र परभात।(१)
भोर खिली अनुपम छटा,लिए सुनहला गात।।
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विषय: भक्ति भाव
भक्ति भाव से कीजिए,अर्चन प्रभु श्रीराम।
जो हनुमत वंदन करे,बनते बिगड़े काम।।
करें ईश भक्ति सदा,उर में धरकर ध्यान।
कष्ट मिटें तन के सभी,सहज होय कल्यान।।
हम राम भजें -दुर्मिल सवैया/मत्तगयंद सवैया
छंद – मत्तगयंद सवैया
विधान – 7(२११) भगण + गा गा =21+2 = 23 वर्ण.
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मत्तगयंद सवैया :-
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(१)
मोर पखा अति भाल सजे नित कानन कुंडल सीप सुघारी।
देखि रहे नभ से छवि मोहन की मनमोहक सी अति प्यारी।।
देखि नहीं कबहूं पहले यह मोहन की मनसी छवि न्यारी।।
सुंदर रास रचें बृज में चितचोर सखींन हुईं बलिहारी।।
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(२)
मोहन की छवि भाय रही अति गोकुल ग्वाल हुए बलिहारी।
सोहनि सूरत मोहनि मूरत मोहन की छवि है अति प्यारी।
लाल गुलाल फबे अति भाल कमाल लगें गिरि के गिरधारी।
खेलि रहे कहुं छेडि रहे बहु दीखत हैं वह खूब खिलारी ।।
छंद- दुर्मिल सवैया ( वर्णिक ) शिल्प – आठ सगण(३ *८ =२४)
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११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२
हम राम भजे हम कृष्ण भजें मन में बस राम समाय रहे।
मन चंचल है मन दुर्बल है हरि साँस लबों बिच छाय रहे।।
हरि नाम भला सतनाम भला मन में यह गीत बजाय रहे।
दिल से हम टेर करें हरि से हम नाहक शोर मचाय रहे।।
“अटल मुरादाबादी “
जब आय चुनाव गए सर पे तब वोटन माँगन चाल दियो ।
बहु बार बने सरकार बने जन प्यार तिहार गँवाय दियो।।
इस बार रखो मम लाज सुनो मन की मनुहार बताय दियो।
अब की बस बार जिता कर के मम कंटक सार हटाय दियो।
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जिनके घर में घोर ॲधेरा दिया लिये हैं हाथों में ।
कांचों के घर में रहते हैं लेकिन पत्थर हाथों में।।
कींचड़ फेंक रहे औरों पर।
डोरे डाल रहें भौंरों पर।
कृत्रिम सुमन खिलाकर खुशबू फैलाते हैं रातों में।
जिनके घर में घोर ॲधेरा दिया लिए हैं हाथों में।।
चिकनी चुपड़ी बातों से वह।
सच को झूठ बताते हैं कह।।
सीधे सरल किसानों को वह उलझाते है बातों में।
जिनके घर में घोर ॲधेरा दिया लिए हैं हाथों में।।
रोटी तोड रहे मुस्टंडे।
उनके बीच घुसे कुछ गुंडे।।
भटकाएं कैसे भी उनको लगे हुए उत्पातों में।
जिनके घर में घोर ॲधेरा दिया लिए हैं हाथों में।।
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गजल
छंद-पियूष पर्व
२१२२ २१२२ २१२
जिंदगी करती रही नित चाह है।
चाह ही तो एक मुश्किल राह है।
राह में कांटे बहुत हैं जान लो,
और मंजिल की यही बस थाह है।
खुशबुओं का है बसेरा खार सॅग,
दर्प देते यदि असजग निगाह है।
जिंदगी को मत न समझो खार तुम,
जिंदगी रब की इनायत-गाह है।
जिंदगी को जी लिया जिसने’अटल’
इस ज़माने का वहीं तो शाह है।
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सुनकर चौदह बरस का, हुआ राम वनवास।
दुखी हुए संताप से,सब जन हुए उदास।
सब जन हुए उदास,घोर मातम सा छाया।
हृदय हुए गमगीन , गीत विरहन का गाया।
कहै अटल कविराय,गारियां देते चुनकर।
कृत्यकैकयी मात,हुए भौचक सब सुनकर।
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नवगीत
विधा-नवगीत
रस-हास्य
शीर्षक:कोरोना
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नाम मे’रा तो कोरोना है,अपना भी तुम बतलाओ।
मिलना हो तो मिलो प्रेम से,घर से तो बाहर आओ।।
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जीवन के सारे झंझट से,
मुक्त तुम्हें कर दूँगा मैं,
जीवन में बस अंधकार से,
पल पल को भर दूंगा मैं।
आओ मुझको गले लगाओ ।
मिलना हो तो प्रेम से,घर से तो बाहर आओ।।
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जो जन भी शरणागत आया।
मैंने नहीं तनिक तड़फाया।।
मैं तो इक समदर्शी ठहरा,
ग्रास बनाकर पार लगाया।।
अपना अपना हिस्सा पाओ।
मिलना हो तो मिलो प्रेम से,घर से अब बाहर आओ।।
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डाक्टर से परहेज़ मुझे है।
सोशल दूरी नहीं मुनासिब।
जो भी मुझसे हाथ मिलाता,
लगता मुझको वो ही बाजिब।
आओ मुझसे हाथ मिलाओ।
मिलना हो तो मिलो प्रेम से घर से अब बाहर आओ।।
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साबुन से मुझको एलर्जी।
मैं जीता हूं अपनी मर्जी।।
सहज निभाना मुझसे रिश्ता।
जुड़ा हाथ से मैं बाबस्ता।।
बहुत तलों पर मैं मिलता हूं।
हाथ लगाओ मैं फलता हूं।।
अपना भी तुम हाथ लगाओ।
मिलना हो तो मिलो प्रेम से घर से तुम बाहर आओ।।
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भीड़ बहुत मुझको प्यारी है।
चाल बहुत मेरी न्यारी है।।
बिना शोर के डालूं डांका।
चीन देश मेरा है आका।
चाहें जो आरोप लगाओ।
मिलना हो तो मिलो प्रेम से घर से तुम बाहर आओ।।
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कुंडलियां
जोड़े कल तक जो खड़ा,सम्मुख सबके हाथ।
हाथ हिलाता दूर से,बना आज वह नाथ।
बना आज वह नाथ, देखकर देता टाइम।
जनता की इग्नोर ,समझता खुद को प्राइम।।
कहै अटल कविराय, मक्खनी मटकी फोड़े।
आज जुडाता हाथ, खड़ा जो कल तक जोड़े।।
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१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
तुम्हारे हुश्न का दिलवर हुआ दीदार कुछ ऐसा।
फकत हमको मिला है प्यार का अहसास कुछ ऐसा।।
नहीं कटतीं हैं रातें बिन तुम्हारे अब सुकूं से ये,
हुआ है रात में दिन का इलम बरसात के जैसा।
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देशभक्ति
हे सेनानी वीर सिपाही तेरा नित- नित अभिनंदन है।
तू अमन चैन का सजग प्रणेता,तेरा नित ही अभिवंदन है।
खड़ा अडिग सीमा पर डटकर,तू ही सच्चा सेनानी है।
सीमाओं की रक्षा खातिर ही कर दी बलिदान जवानी है!
देशभक्ति सबसे ऊपर है,तू ही माथे का चंदन है।
हे सेनानी वीर सिपाही——+++
जेठ दुपहरी माघ शीत में,तू सीमा पर डटा हुआ है।
राष्ट्र भक्ति की मर्यादा को,अन्तर्मन से सहज छुआ है।
रहे हौंसले भी बुलंद हैं,अरि के मन में अब भी क्रंदन है।
हे सेनानी वीर सिपाही++++++++
हम तो सोते पांव पसारे,हुए मोदमय घर चौबारे।
सीमा पर तुम जाग रहे हो,मन में देश प्रेम को धारे।
सीमा पर लड़ने वाला नर,वीर शिवा का नंदन है।
हे सेनानी वीर सिपाही तेरा नित-नित अभिनंदन है।
सब कुछ अपना न्यौछावर कर, किया समर्पित है जीवन यह,
आंच नहीं आने दी तिल भर,करी नहीं उफ भी सब कुछ सह।।
मातु पिता औ पत्नि बहना,छोड दिया घर का बंधन है।
हे सेनानी वीर सिपाही तेरा नित-नित अभिनंदन है।
करके तूने सभी समर्पित, लोकतंत्र को किया है रक्षित।
सबको सुविधा लाभ दिये है, खुद उनसे तू रहता वंचित।
जोश सभी में भरता है नित, कालजयी तू स्पंदन है।
हे सेनानी वीर सिपाही तेरा नित-नित अभिनंदन है।
नेताजी और वीर भगत सिंह, तेरी ही छवि में बसते हैं।
अब्दुल हमीद औ शेखर भी, प्रतिनिधित्व तेरा करते हैं।
शौर्य वीरता का बस तू ही,दिव्य सुशोभित सा कुंदन है।
हे सेनानी वीर सिपाही तेरा नित-नित अभिनंदन है।
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खिले जीवन तुम्हारा ये गुलों की पॅखुरी जैसा।
रॅगीला हो वह रॅगों से सुमन के रॅग का जैसा।
सदा बहती रहे खुशबू मृदुल जीवन में तेरे,
सुहाना हो सफर तेरा गगन में विधु के जैसा।।
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प्रदत्त विषयःकिसान
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सूखे का संताप झेलते,कभी बाढ को भी सहते हैं।
कितनी भी वे करें कमायी,बोझ तले नित ही रहते हैं।।
दुनिया के जीवन दाता पर,कर्जों से निश दिन मरते हैं।
कैसा है दुर्भाग्य मगर यह,लोग अन्नदाता कहते हैं।।
बंजर हो भूतल चाहे भी, नहीं कभी हिम्मत धरते हैं।
जेठ दुपहरी माघ शीत में, खेतों में पानी भरते हैं।
खेत किसानी उनका पेशा,पेशे को गर्वित करते हैं।
स्वांस स्वांस में खुद्दारी है,लोग अन्नदाता कहते हैं।
मेहनत कश इंसान यही है,सच की भी पहचान यही है।
मानव में मानव से ऊपर,ईश्वर का वरदान यही है।
सत्य प्रेम का नित्य पुजारी,सम्मुख लेकिन है लाचारी,
भाग्य सहज लिखता औरों के,किस्मत उसकी है बेचारी।।
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नवगीत /व्यंग
किसानों के आंदोलन के संदर्भ में
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राखि कांधे पर उन्हीं की
साधते बन्दूक उनकी।
भाड़ में जाये जमाना
छद्म है यह चाल उनकी।।
नित रहे बहका उन्हें वो।
हैं सरल सीधे मनुज जो।।
छल रहे बनकर हितैषी
है दिखावा भाष्य उनकी।
राखि कांधे पर उन्हीं की
साधते बन्दूक उनकी।।
मार्ग से भटका रहे हैं।
बात को अटका रहे हैं।।
है सतत प्रयास उनका
बात नहीं बन जाय उन की।
राखि कांधे पर उन्हीं की
साधते बन्दूक उनकी।।
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कृष्णा
रिझाता है दिलों को बांसुरी वाला।
कहै नटवर उसे , कोई, उसे ग्वाला।
वशी, वो प्रेम -बंधन का पुजारी है ,
दिलों पर राज करता,नन्द का लाला।।
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चंद अश-आर
सुर्ख ओंठों पर स्वत: ही अब हंसी आने लगी।
बंद पलकों में मिलन की हर खुशी छाने लगी।
कसमसाने अब लगी है शाम भी आवेग में,
वस्ल की उम्मीद में अब रात भी गाने लगी।।
वक्त भी अब पंख पहने उड़ रहा आकाश में,
दो घडी लेकिन मिलन की आज कुछ माने लगी।।
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जिंदगी
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अनुपम है उपहार जिंदगी।
ईश्वर का उपकार जिंदगी।
जन्म मिला, जी भरके जी लो;
क्यों करते बेकार जिंदगी।।
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मुक्तक
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(१)
सदाचार की क्या परिभाषा सबने निज अनुसार गढी।
खुद के मुंह पर भोलापन रख दूजे के सब माथ मढी।
ऐसा ही कुछ देखा मैंने, दुनिया की इस मंडी में ,
चार ज्ञान के आखर पाकर,मन पर मोटी धूल चढी।
(२)
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
बड़ी शिद्दत से मैंने इक मकां अपना बसाया है।
बड़े यत्नों से मैंने ये सजा सुंदर बनाया है।
चमन से फूल चुन चुनकर इसे दिल से सजाया है।
कहीं यह टूट नहिं जाये बड़ी मुश्किल से’ पाया है।
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देखें दो दोहे
सुंदरता की कर परख,दीजै उसको मान।
कण-कण में बसते यहां,सृष्टि के ही प्राण।।
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सुंदर कोमल फूल ये, ईश्वर का उपहार।
इनसे खुद भी सीखिए, कुछ अच्छे आचार।।
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छंद द्विमनोरम
२१२२ २१२२ २१२२ २१२२
प्रार्थना स्वीकार कर लो,शारदे मुझको सिखा दो।
काव्य की अनुपम ऋचा से, तुम मे’रा परिचय करा दो ।
शब्द में शुचि भाव हों बस,
छंद सुंदर सौम्य हों सब।
हो सरसता औ मधुरता शारदे कुछ नव लिखा दो।
प्रार्थना——-+
मूढ अज्ञानी मनुज मैं,
काव्य की रचना न जानूं।
क्या लिखूं कैसे लिखूं मैं,
मैं इसे बिल्कुल न जानूं।।
कर्म के ही पथ चला हूं तुम मुझे सतपथ दिखा दो।
प्रार्थना——-
श्वेत वर्णा काव्य पर्णा
छंद की अधिकारिणी हो।
और वीणा वादिनी तुम,
कंठ की मृदुभाषिनी हो।।
कंठ में मेरे सहज बस,
छंद में नौ रस समा दो।
प्रार्थना स्वीकार कर लो, शारदे रास्ता दिखा दो।
मंगलवार, दिनांक -31/03/2020
लावणी छंद आधारित एक रचना
मां के चरणों में
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संकट घोर जगत में छाया, मां दुर्गा कल्याण करो।
भूले हुए पथिक का रस्ता,मां अंबे आसान करो।
तू ही तो तप की देवी है, ब्रह्म चारिणी कहलाती ।
तप कैसे करता है साधक, दुनिया को तू सिखलाती।
मैं भी तो तेरा इक साधक ,मां मुझको यह बतलाओ,
इधर उधर मैं भटक रहा हूं, मुझको मारग दिखलाओ।।
नेह प्रेम की गंगा हो तुम,मुझ को नेह वर दान करो।।
घोर विपत्ती आयी जग में,मां दुर्गा कल्याण करो।।
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मां शारदे के चरणों में समर्पित
(१)
लिख सकूं दो शब्द मैं भी, शारदे किरपा करो।
मैं निपट मूरख, अनाड़ी,ज्ञान से झोली भरो।।
रच सकूं कुछ छंद अनुपम,ताल-गति कुछ दीजिए,
भावना में हो सहजता,सिंधु से मुझको तरो।
(२)
ज्ञान का भंडार हो मां, ज्ञान की तुम दायिनी।
हंस पर आरूढ हो तुम,शंख वीणा वादिनी।।
छंद में शुचि भाव भर दे, मातु मेरी शारदे,
और लेखन ताल-मय हो, ताल की परिभाषिनी।
********************************
देखें कुछ आध्यात्मिक सिंहावलोकन दोहे
???????
सबको ही मिलता सदा, मां का अनुपम प्यार।
सच्चे मन से जो भजे,होता भव से पार।।(१)
होता भव से पार ही,कट जाते सब बंद।
मोक्ष प्राप्त करता सहज, मिले मूल मकरंद।(२)
मिले मूल मकरंद जब,सुफल जनम हो जाय।
इस जीवन में ही महज, परम धाम को पाय।।(३)
**********************************
बोलो जय माता की!!
घनाक्षरी छंद
शब्द-स्वर की स्वामिनी,(८)
हे माता हंसवाहिनी-(८)
भाव में प्रवाह कर,(८)
छंद में विराजिए।(७)
सुमातु हे सुहासिनी
माँ अम्ब वीणावादिनी
कंठ को सुकंठ कर,
कंठ मेंं विराजिए।
सुप्त हुई चेतना है,
वेगमयी वेदना है।
अंग -अंग हैं शिथिल,
अंग में विराजिए।
आरती सजाऊं नित्य,
हो न कोई नीच कृत्य,
आओ मेरी मातु मेरे
संग में विराजिए।
देखें शारदे के चरणों में एक रचना
**************************
जय मां शारदे!
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।
शब्द-शब्द में भाव भरो मां,छंद- गंध बन जाओ।।
दिशा बनो मेरे छंदों की।
कथा लिखूं नव अनुबंधों की।।
मेरी जिह्वा पर बैठ तनिक,
इक नव रचना रच जाओ।
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।।
मैं बोलूं जो बोल मुखर हो।
सब तुझको ही अर्पण हो।।
वाणी में नित ओज भरा हो,
हर पल तुझे समर्पण हो।।
गाऊं गान तेरा’ नित ही मैं,
कुछ ऐसा तुम कर जाओ।
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।।
मैं मूरख, अनजान मनुज हूं,
तुम वाणी की देवी हो।
भूले भटके,जो जन अटके,
नाव सभी की खेती हो।।
ज्ञान-पुष्प की गंध बहाकर,
रोम-रोम को महकाओ।
मन के तारों को झंकृत कर, उनमें तुम बस जाओ।।
मां शारदे के चरणों में समर्पित
सब को भातें हैं बहुत दुर्गा के नौ रूप।
मां सबका पालन करे रंक होय या भूप।।
शेर सवारी है बहुत मां को प्रिय श्रीमान।
भक्ति के आधीन है तुरंत करे कल्यान।।
*****”*****””””*********””
प्रथम पूज्य शैल पुत्री दूजे दिन ब्रह्मचारिणी।
चंद्रघंटा कूष्मांडा सर्वजन पापनाशिनी।
स्कंदमाता कात्यायनी दैत्य कुल विनाशिनी।
कालरात्रि महागौरी जगत कल्याण दायिनी।
महा दुर्गा महाशक्ति जन जीव मंगलदायिनी।
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दिनांक13.04.2020
आज का चयनित छंद – दोहा(मात्रिक
*विषम चरण में 13 मात्रा ।
*सम चरण में 11 मात्रा ।
*******************************
ओम् श्री गणेशाय नमः!!
श्रीगणेश का नाम ले,कथा करूं प्रारम्भ।
हे गणपति किरपा करो,रहे तनिक ना दम्भ।।(१)
हे मां मेरी जीभ पर,तुम बैठो अब आन।
शब्द ज्ञान कछु है नहीं,करो सहज कल्यान।।(२)
मैं तेरे गुण पर लिखूं,क्या मेरी औकात।
मैं इक मूरख जान हूं,किरपा कर दे मात।।(३)
तू शब्दों की खान है,सब कुछ है आधीन।
मुझको अब सिखलाइये,मैं याचक इक दीन।।(४)
हे मां मुझको दीजिए,अपना अनुपम प्यार।
मैं शरणागत नित रहूं, करूं सदा सत्कार।(५)
बार -बार मैं पूजता,लेकर तेरा नाम।
तू मेरी जिह्वा बसे, लिखूं कथा श्रीराम।।(६)
चैत्र शुक्ल नवमा दिवस,प्रगट भये श्रीराम।
उस जन पर किरपा करें,जो लेता प्रभु नाम।।(७)
मेरी सुध भी लीजिए,दशरथ नंदन राम।
मैं शरणागत नित रहूं,लेकर तेरा नाम।।(८)
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प्रदत्त विषय शब्द- दु:ख / कष्ट / विषाद /
पीड़ा / व्यथा / संताप …
देखें कुछ दोहे
????
कष्ट हरो जग के सकल,हे मां अंबे आन।
कोरोना की मार से,निकले सबके प्रान।।(१)
आतंकित है ये जगत,जग में है संताप।
सुध कोई बतलाइए,आकर माता आप।(२)
तुम ही जग की मातु हो,तुम ही पालनहार।
तुम ही कष्ट निवारणी, तुम जग की आधार।।(३)
तुम ही आकर के यहां,हर लो मूल विषाद।
हे मां तुम अब आइये,अटल करे फरियाद।(४)
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राजा रंक नहीं कोई भी,सब पर उसका साया है।
भक्ति भाव से टेर करे जो,भक्त उसे वह भाया है।
दूर करे सबके कष्टों को पल भर में मां जगदम्बे!
सकल विश्व पर नजर टिकी है माता की ही छाया है।
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प्रेम वृष्टि की अविरल धारा,नित उसने बरसायी है।
भक्तों पर किरपा करती है,महिमा जिसने गायी है।
सिंह सवारी उसको प्यारी, भक्त सभी उसको अति प्रिय,
माता की वह अनुपम मूरत,सबके मन में छायी है।
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ग़ज़ल/गीतिका
छंद: गीतिका
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
रेत की ऊंची अटा पर घर मे’रा जो ढह गया।
वक्त की आंधी में’ सब कुछ दिल का’ अरमां बह गया।।
जो मिला राहे- सफर,दिल से लगाया हर दफा,
हर दफा ही जाते’ जाते,जख्म गहरे दह गया।
हमने’सोचा भी नहीं था वो मिलेंगे इस तरह,
जो कभी दिल का सुकूं था आज हमको गह गया।
इश्क का हर कायदा हमने पढा उनसे सहज,
बिन जुबां के ही वो सब कुछ आज हमसे कह गया।
दिल में’ रकम’ तहरीर को किसको दिखाए अब अटल,
जुल्म इस सारे जहां के दिल दिवाना सह गया।
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मंच के सम्मुख संप्रेषित है ?❤️?
सबके घर की दुलारी हैं ये बेटियां।
मां-बाबा को प्यारी हैं ये बेटियां।।
बेटियों से ही रौशन ये घर ओ चमन,
रब की नायाब रचना हैं ये बेटियां।।
उजाला हैं हर आशियाने का ये ।
एक दौलत हैं हर घराने का ये।
इनके बिन है हर कहानी अधूरी,
जरिया हैं घर को महकाने का ये।
एक सवैया छंद
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८×गालल(८×२११)
प्रेम लुटाकर, दीप जलाकर जो करते सबका अभिवादन।
प्रीति जगाकर रीति बनाकर,वो करते जगती नित पावन।।
फूल नहीं ढलते पल में वह, जीवन में रहता नित सावन।
वे जन जीव सदा जग में नित,होत सदा सबके मन भावन।।
मां शारदे के चरणों में समर्पित
देखें कुछ आध्यात्मिक सिंहावलोकन दोहे
???????
सबको ही मिलता सदा, मां का अनुपम प्यार।
सच्चे मन से जो भजे,होता भव से पार।।(१)
होता भव से पार ही,कट जाते सब बंद।
मोक्ष प्राप्त करता सहज, मिले मूल मकरंद।(२)
मिले मूल मकरंद जब,सुफल जनम हो जाय।
इस जीवन में ही महज, परम धाम को पाय।।(३)
बोलो जय माता की!
प्रदत्त शब्द -तनिक/जरा/अल्प/थोड़ा
संप्रेषित एक कुण्लिया छंद
?????
कोरोना शैतान अब,कीजै इतना काम।
भय का अब माहौल है,दीजै अल्प विराम।
दीजै अल्प विराम,त्रस्त हैं नर औ नारी।
पीड़ा अब तडफाय, दुखी है दुनिया सारी।।
कहै अटल कविराय,बता दो कोई टोना।
संकट यह मिट जाय,दूर होए कोरोना।।
सुप्रभात मित्रों!
अरुणिम लाली संग भोर हुई।
दिनकर ने मन की डोर छुई।।
उपवन से शबनम की बूंदें,
गायब ज्यों कोई छुई-मुई।
रजनी की काली छाया भी
डरकर लाली से भाग रही।
जन जीव सभी अब चहक उठे,
झूमे खुश होकरआज मही।
इक नवजीवन संचरित हुआ,
आशाओं ने नव-सार छुआ।
बहशी कोरोना से कब तक,
पायें मुक्ती कर रहे दुआ।
गीतिका ?
पदांत- है नारी
समांत- आन
आधार छँद – विधाता ( मापनीयुक्त मात्रिक )
पदाँत – है नारी समाँत – आन
१२२२ १२२२ १२२२
हमारा मान है नारी हमारी शान है नारी।
लुटाती प्यार नित अपना वफा की खान है नारी।।
भले सीधी सरल लेकिन, बहुत उलझी हुई है वो,
धधकती आग का गोला, वनम् का प्राण है नारी।
अनेकों रूप इसके हैं,बसीं इसमें विविधताएं,
कभी ममता की’ देवी तो,कड़क फरमान है नारी।
कभी पूजी गई देवी,कभी ठोकर भी’ खाई है,
कभी अपमान सहती है, कभी सम्मान है नारी।
रही अब छू गगन को भी,नये सौपान पर बैठी,
नहीं है पांव भूतल पर,चलाती यान है नारी।।
वतन पर मिट गये जो खुद, उन्हीं की बात करता हूं।
खड़े जो सरहदों पर हैं, उन्हीं की बात करता हूं।।
नहीं करता कभी बातें,मुनव्वर और राहत की,
बसा जिनके दिलों भारत, उन्हीं की बात करता हूं।।
????
प्रहरियों के नाम
दीपक एक जलाइए,उनके भी अब नाम।
सीमाओं पर जो खड़े,डटकर आठों याम।।
घनी दुपहरी धूप में, या हो चाहे वृष्टि,
ड्यूटी पर तैनात हैं, नहीं करें विश्राम।।
दुश्मन सम्मुख है खड़ा, सीमाओं के पार।
लेकिन मन में भय नहीं,रहे सजग अविराम।।
मन में दृढ विश्वास है,हम हैं उनसे बीस,
राष्ट्र प्रेम हिय में भरा, करें कर्म निष्काम।।
दुश्मन दो प्रत्यक्ष हैं, दुष्ट चाइना पाक,
घर के अरि पहचान कर, कीजै काम तमाम।।
राष्ट्र सुरक्षा के लिए, करें सदा जो कर्म,
कहै अटल कविराय अब, उनको करूं प्रणाम।
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मान और सम्मान के पीछे पड़े हैं आज क्यों।
दीख रहा हैऔर कुछ, दिल में छुपा है राज क्यों।
चल रहें हैं चाल टेढ़ी देखकर ऊंचाईयां।
हैं धरातल पर मगर बदले हुए अंदाज क्यों।
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सब देवों में श्रेष्ठ हैं,गौरी पुत्र गणेश।
पूजा उनकी कीजिए,हैं जो अति विशेष।।
दूजे पूजें शारदा,जो शब्दों की खान।
जिव्हा पर जिसकी बसे,करे मनुज कल्यान।।
गंगा का सुमिरन करें,करती जग कल्यान।
हरा भरा धरती करे,हरषे खेत किसान।
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दिल्ली की आज की स्थिति पर देखें कुछ पंक्तियां
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दिल वालों की दिल्ली थी यह,लेकिन अब शैतानों की।
आज वही मोहताज’हुई है,अपनी ही पहचानों की।।
दंगा वो ही करा रहे हैं, जो इंसां के दुश्मन हैं,
खेल रहे हैं भावनाओं’से ,नेता नित इंसानों की।।
भ्रम का जाल बिछाकर मन में,जनता को भरमाते हैं,
जला रहे हैं आज होलिका,लोगों के अरमानों की।।
बेच रहे हैं माल झूठ का,नेता भरी बजरिया में,
बोल रहे हैं वो ही भाषा,जो भाषा इमरानों की।।
कुछ मुटठी भर लोगों ने, कसम आज यह खाई है,।
कैसे भी हो भंग शान्ति, अनबुझ आग लगाई है।
दंगा करते डोल रहे , ज़हर फिज़ा में घोल रहे,
उल्लू सीधा करने को,युक्ती नयी बनाई है।
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सुप्रभात !
जग का तिमिर मिटा दोगे तुम’,
मन का तिमिर मिटाये कौन?
भ्रमित हुयी मानव जाति को,
सच की राह दिखाये कौन?
उलझे हुए यहां पर हैं सब,
अपनी अपनी उलझन में,
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गीतिका/ग़ज़ल
२१२ २१२ २१२ २१२
चल रही ज़िंदगी ढल रही ज़िंदगी।
आज अपनी डगर बढ़ रही ज़िंदगी ।।(१)
हमसफ़र तो मिले,छूटते ही गये,
अब कफ़न बांधकर कट रही ज़िंदगी ।।(२)
चल रहा आदमी बढ़ रहा आदमी,
पर न आगे ज़रा बढ़ रही ज़िंदगी ।।(३)
जल रहा आदमी एक ही आग में,
एक ख़ाली सिला बन रही ज़िंदगी ।।(४)
एक उलझन महज़ सामने बन खड़ी,
अब यकायक हमें छल रही ज़िंदगी ।।(५)
वर्फ पिघली नहीं,अबतलक इश्क की,
एक बनकर शमां,जल रही जिंदगी।।(६)
इस सफर में मिला क्या”अटल”की सुनो,
हर पहर ही हमें,खल रही जिंदगी।।(७)
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दोहे
अफवाहों का गरम है,आज यहां बाजार।
बेच रहे हैं झूठ नित, नेता हो लाचार।।(१)
मर्यादा भूले सभी,नेता जी इस बार।
सेना पर भी कर रहे,नित ही नये प्रहार
।।(२)
क्या लेना है देश से,टूटे या बिखराय।
उल्लू सीधा कर रहे, जनता को भरमाय।।(३)
बेच रहे हैं झूठ को,भरी बजरिया आज।
उनको तो कुर्सी मिले,डूबे सकल समाज।।(४)
सर्दी भी कमतर दिखे,भारी नेता बोल।
अन्त: में सब कुछ भरा,बाहर दिखता खोल।।(५)
सर्दी की ठिठुरन भली, सीधा अनुभव होय।
नेता की भाषा जटिल,समुझ सके नहि कोय।।(६)
मिश्री से मीठे हुए,नेता जी के बोल।
लगता शीघ्र चुनाव का,बजने वाला ढोल।।(७)
नव वर्ष २०२० की पूर्व संध्या पर
आपको व आपके परिवार को अशेष मंगलकामनाएं।
कैसे भेंट करूं मैं तुमको,अपना शुभ आशीष।
जीवन में हर ओर बढ़ो तुम,कभी झुके नहि शीष।।
और तरक्की की सीढ़ी पर, बढ़े कदम की डोर।
फैले दिव्य पताका जग में,निष्कंटक चहुॅओर।।
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सूर्य देव भी खुश हुए,ज्योंआया नव वर्ष।
अरुण लालिमा संग वह,बिखराते निज हर्ष।।
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लोगों का भरता नहीं ,सम्मानों से पेट।
पाने को सम्मान वह,करते लाग लपेट।।
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छंद-आनंदवर्धक
मापनी- २१२२ २१२२ २१२
“आदमी से डर रहा है आदमी”
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क्यों बुराई कर रहा है आदमी।
पाप गठरी भर रहा है आदमी।।
घोलता खुद विष हवा में जानकर,
और खुद ही मर रहा है आदमी।।
दूसरों को जो मिलावट मौत दे,
मौत उस ही मर रहा है आदमी।।
बीज नफ़रत के दिलों में बीजकर,
पेड़ के फल चर रहा है आदमी।।
हो भला ना कर्म से इंसान का,
कर्म ऐसे कर रहा है आदमी।।
झूठ के नहि पैर होते हैं मगर,
पैर उस पर धर रहा है आदमी।।
है पता उसको छलावा है बुरा,
क्यों छलावा कर रहा है आदमी।।
लफ्ज में कैसे बताए अब “अटल”,
क्या न जाने कर रहा है आदमी।।
वक्त की ऐसी चली है अब हवा,
आदमी से डर रहा है आदमी।।
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सब देवों में श्रेष्ठ हैं,गौरी पुत्र गणेश।
पूजा उनकी कीजिए,हैं जो अति विशेष।।
दूजे पूजें शारदा,जो शब्दों की खान।
जिव्हा पर जिसकी बसे,करे मनुज कल्यान।।
गंगा का सुमिरन करें,करती जग कल्यान।
हरा भरा धरती करे,हरषे खेत किसान।
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मनहरण घनाक्षरी८,८,८,७
पाप ताप बढ रहा, प्यार आज घट रहा,
कर रहे हैं वैर वो,प्यार को जगाइए।
नफरतों के बीज वो,नित रहे हैं आज बो,
रोशनी की एक लौ आज अब जलाइए।
चल रहा खेल अब,कांप रहा आज रब,
खत्म होगी राड़ कब,आप अब बताइए।
कांपता किसान अब,झूठ का विधान सब,
बातचीत कीजिए जी जाम अब हटाइए।
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