कविता
रोला छंद
मात्रा विधान- 24 मात्रिक छंद, 11 ,13 पर यति, विषम चरण के अंत में गुरु लघु, सम चरण के अंत में 2 गुरु
“सृष्टि को आन बचाओ”
देवलोक की देन सृष्टि अद्भुत कहलाती।
करुण भाव से लसित रूप कमनीय दिखाती।
स्वार्थ-सिद्धि में ग्रसित मनुज जब भूला जीना।
सेवाभाव बिसार सृष्टि का वैभव छीना।।
दिव्य रश्मि छवि लाल धरा की माँग सजाती।
ललित लहर से लिपट रक्तमणि गरिमा पाती।
झुकी धरा पर मौन सुनहली लट बिखराए।
कानन राजित विटप उल्लसित हो हरषाए।।
ले प्रभात उन्माद हरित तरु शोभा पाते।
रंग-बिरंगे विहग उड़ानें भर इतराते।
नवजीवन दे भोर करे तन-मन सुखकारी।
मिटा सहज आलस्य बनी औषधि गुणकारी।।
शीतल, मलय समीर शाख किसलय दुलराता।
तटिनी छेड़ तरंग वारि पर नेह लुटाता।
पहुँच अरहरी खेत फसल का शीश झुकाए।
देवालय के शीर्ष चढ़ा ध्वज मान बढ़ाए।।
उच्च शिखर से उतर रही बह शीतल धारा।
सरिता रविमुख बिम्ब चूमती नभतल प्यारा।
सुख-दुख तटिनी कूल कर्म का भान कराती।
कोमल,निश्छल भाव तरंगित महिमा गाती।।
स्वर्ग सृष्टि का दहन मनुज कर दर्प दिखाता।
संहारक कर कर्म नपुंसक गौरव पाता।
मर्माहत है लोक सभ्यता वैभव खोती।
भौतिकवादी सोच देखकर वसुधा रोती।।
व्यथा यही है विटप काट माली सुख पाता।
दूषित पर्यावरण मनुज कर स्वार्थ निभाता।
दो दाता अभिदान मनुज को सीख सिखाओ।
सुन आहें असहाय सृष्टि को आन बचाओ।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र..)
संपादिका-साहित्य धरोहर