कविता
क्यूँ री सखि भाग-6
सांचा उसका नाम सखि री
उँचा उसका धाम सखि री
दिखे कभी कृष्ण कन्हैया
कभी दिखे राम सखि री
जोर की ऐसी आँधी आई
उड़ गया सारा गाँव सखि री
मंज़िल तक मैं कैसे पहुँचु
जख्मी मेरे पाँव सखि री
तपस पे मेरा नाम लिखा है
किस्मत में नहीं छाँव सखि री
हाथ पैर से मेहनत कर ले
क्या करना है चाम सखि री
साकी बन कर कहां न घूमी
मिला न प्यार का जाम सखि री
इस दुनिया से जाना चाहूँ
रहा न मेरा काम सखि री
दर दर भटकूँ खोजूँ उसको
लोग करें बदनाम सखि री
जीना अब तो हो गया मुश्किल
मुझको अब ले थाम सखि री
कहां बेचूँ मैं इस पिंजर को
मिले न कोई दाम सखि री
बिन मोल बिकूँ में हर पल
सुबह हो या शाम सखि री
किसको अपना दुःख सुनाऊँ
भेजूँ कहाँ पैगाम सखि री
उसे देख के भूख मिटा लूँ
उसके दर लगी धाम सखि री
सबके आगे हाथ फैलाऊँ
दे न कोई काम सखि री
जंगल जंगल भटक के देखा
मिला न उसका धाम सखि री
अपना जीवन कैसा जीवन
चाहत का गुलाम सखि री
पैर थके अब चल न पाऊँ
निराश मिले न शाम सखि री
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र