कविता
क्यूँ री सखि भाग -5
झूठी उसकी.प्रीत सखि री
आयो न मेरो मीत सखि री
दर दर भठकुँ ठोकर खाऊँ
गाऊँ विरह के गीत सखि री
कहां से उसको ढूंड निकालूँ
बन जाये जो मीत सखि री
छुड़ा के दामन हरदम भागे
कैसी उसकी रीत सखि री
अपना होकर रहे न अपना
समय सा जाये बीत सखि री
दर्द दे और खूब चिढ़ाये
समझे अपनी जीत सखि री
सुन्दर दिल है खुद भी सुन्दर
है वो बड़ा पुनीत सखि री
बीणा की झंकार सरीखा
मालकोंस संगीत सखि री
प्यारा सा मनमोहक लगता
वर्ण है उसका पीत सखि री
अपनी कहे सुने न मेरी
जानू़ न उसकी नीत सखि री
दिल में आग लगाये मेरे
ग्रीष्म हो या शीत सखि री
दिल लूटे पर भेद नहीं दे
निराश मेरा मनमीत सखि री
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र