कविता
क्यूँ री सखि भाग-3
मुश्किल हैं हालात सखि री
लुट गये जज्वात सखि री
झूठे रिश्ते नाते अपने
लगा के बैठे घात सखि री
रो रो कर दिल बहलाऊँ
भूल गया कयूँ तात सखि री
दिल का लुटना कभी रुके न
रात हो या प्रात सखि री।
ये दुनियाँ अपने मतलव की
देती रहे आघात सखि री
सर्द ऋतु दुखी है करती
रुलाये बड़ी बरसात सखि री
पाल पोस कर बड़ा किया था
पिता रहे न मात सखि री
अपनों संग तो सब सुखी हैं
मैं अकेली जात सखि री
न है कोई बहना अपनी
न है कोई भ्रात सखि री
नज़र नज़र में दिल माँगें
लूटें अस्मत बलात सखि री
सर पे जिसका हाथ था मेरे
कर गया वो अनाथ सखि री
कब तक उखड़ी साँस चलेगी
करुँ ये कैसे ज्ञात सखि री
सूना सूना दिन है मेरा
सूनी सूनी रात सखि री
हर साँस में उसे पुकारुँ
हो कैसे मुलाकात सखि री
अपने सारे दुष्मन हो गये
दुश्मन हुए अज्ञात सखि री
दिल टूटा पर जाँ न निकली
ये कैसी करामात सखि री
कोई मुझको मुँह न लगाए
कोई करे न बात सखि री
उजड़ी उजड़ी दुनियाँ मेरी
उजड़े से ख्यालात सखि री
मुश्किल से था घर बसाया
तोड़ गये हालात सखि री
घर से निकलूँ बाहर जाऊँ
लोग कहें बदजात सखि री
सुरेश भारद्वाज निराश
धर्मशाला हिप्र