कविता :सुनाने आया हूँ।
ग़रीब की आह!सुन दर्द दिखाने आया हूँ।
मानवता हितैषी बन मर्ज़ सुनाने आया हूँ।।
झोंपड़ी गुमसुम कभी अरमान लुटता भैया।
डगमग जीवन की नाव सम्मान घटता भैया।
ठोकरों में हैं,रोते चिल्लाते आँसू पी जाते।
ग़म की घूँट पीते,नहीं किसी को दिखाते।
मान-मर्यादा सब सिमट के कटोरा हो गई।
साँप की ज़िंदगी-सी ज़िंदगी पिटारा हो गई।
घुटते सिमटते साँसों का बयान सुनाने आया हूँँ।
मानवता हितैषी………………..
बलात्कार जिसका हो वो समाज से कतराता।
तेज़ाब फैंका जिसपर वो आइने से शर्माता।
चोर की दाड़ी में तिनका हरकोई ये बताता।
चोर चोरी से जाए हेराफेरी से क्यों नहीं जाता?
कर्म की पूजा सत्य तो भाग्य किसको कहते?
जिसके पीछे हो पागल सब घूमते ही हैं रहते।
आपने देखा भुला मैं ये याद दिलाने आया हूँ।
मानवता हितैषी…………. ……।
सब बातें सबको पता पर अपनाते नहीं बंधु!
दर्द समझते सब पर ध्यान लगाते नहीं बंधु!
मैं के वश में हम का ठिकाना भूल गए हैं।
दौलत के मोह में रे! इंसानियत भूल गए हैं।
संसार मिथ्या रब सच्चा जान अंजान हैं हाय!
दंभ में चूर हो इंसानियत से करते हैं बाय।
ये संसार किराए का घर यही समझाने आया हूँ।
मानवता हितैषी……………….।
….राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”