कविता **सुन रे मानव**
पैसा बड़ा हो गया आदमी से आज।
पैसे वाले को सलाम करता है समाज।
पैसा न हो उसे ग़रीब कहता है देखो,
पैसे वाले पर करता है हरकोई नाज़।
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सूर्य की पहली किरण हर घर में आती।
गरीब अमीर का फ़र्क नहीं है समझाती।
तेरी दृष्टि में मनुज ये खोट किसलिए है?
जो जाति,धर्म,क्षेत्र में है बटती जाती।
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प्रकृति ने सबको है समान समझा भाई।
आदमी ने तैयार की भेदभाव की खाई।
पैसा यहाँ सर्वोपरि वहाँ बराबर हैं सब,
राजा-रंक की एक जैसी ही है सुनवाई।
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न भूल मानवता न भूल खुदा मन्तव्य।
आज तेरी कल और की होगी गंतव्य।
तेरी सोच तो एक ख़्वाब सलीखी है रे,
तू समझता है भूल से उसे देख भव्य।
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बूढ़ी के बाल जैसा तेरा रूप है मानव।
इसे शाश्वत समझ करता है अह्मभाव्य।
रे मूर्ख!तेरी औक़ात कुछ भी नहीं है,
भौतिक चीज़ों से प्यार का ये काव्य।
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स्वार्थ छोड़ दे मानवता समझले गाफ़िल।
विकार भूलके प्यार से भरले अपना दिल।
तेरी औकात तो बुलबुले-सी है मेरे,भाई!
आँसू तो बहा देते हैंं आँख का काजल।
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काल का डर नहीं थाल सर्वोपरि तेरेलिए।
राज अहंकार सिर चढ़बोले स्वार्थ फेरेलिए।
तू मिट्टी है मिट्टी में मिल जाएगा एकदिन,
घूम रहा तू मन पागलपन के अँधेरे लिए।
……
तू मुझे नज़रअंदाज़ मत कर पागल हो।
मैं समंदर हूँ तू न रोबकर देख मंदिर हो।
मैं उछलूँगा तो तुझे बहा ले जाऊँगा साथ,
नाचेगा लहरों में मेरी बस तू एक बंदर हो।
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आज अपने आप को सुधार छोड़ तक़रार।
आज तेरी है कल होगी मेरी भी सरकार।
ये ज़िदगी है कभी धूप कभी छाँव भैया!
कभी मैं हूँ कभी तू होगा यहाँ लाचार।
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न तू है न मैं हूँ यहाँ पूर्ण सुन कानखोल।
परमात्मा पूर्ण उसके आगे कोई नहीं बोल।
अहम्वस आँखों पर बुराई का पर्दा गिरा है,
कौवे को भी तू समझता है प्यारे कोयल।
……..राधेयश्याम बंगालिया प्रीतम