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10 Jan 2021 · 1 min read

कविता चाहत की मंजिल

चाहत की मंजिल लूटी है अपनी कोई दूकाँ तो नहीं
रब ने कठपुतली बना के नचाया छीनी जुबाँ तो नहीं

जिसे देखों घृणा से नादाँ परिंदों पर पत्थर उठाता है
उसकी पाक मोहब्बत का गुनहगार भगवान तो नहीं

सोचा खुदा मिलता हो तो,मंदिर मस्जिद भी जाऊं
पर तू मुझमे है तो ये जिस्म तेरा कही, मकाँ तो नहीं

झकझोर गया मेरी अंतरआत्मा को बेरुखी दिखा
जिदंगी की कड़वाहट में कही ये तेरा ,तूफां तो नहीं

अनजान अशोक चला खुद की तलाश में ऐ खुदा
कीमत चूका दूँगा कही भी ,तेरी जाँ पहचान तो नहीं

दोस्ती ना सही दुश्मनी निभा ले मुझसे तू मेरे ख़ुदा
मैं मासूम तेरे तीरों कमान का कही निशाँ तो नहीं

हुक़्म गुरु से तो आकर्षित मैं तुझे पाने को हुआ हूँ
सोया ज़मीर मेरा या तेरा तू साधू मैं शैतान तो नहीं

अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
9968237538

Language: Hindi
1 Like · 259 Views
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