कल आज और कल
आज कल और आज…
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क्या कुछ नहीं बदला है आज , कल, और आज में जब हम बच्चे थे प्रारंभिक शिक्षा का वह दौर और वह अभाव ग्रस्त बचपन …..तब शायद हममे अपने परिवारिक परिस्थितियों से समझौता करने की समझ आज की जनरेशन से कही बहुत अधिक थी।
हमें जो मिलता हम उसी में खुश थे , अब यह समझौता अभाव ने हमें सिखाया था या वाकई में हम इतने समझदार थे …………कह पाना जरा कठिन है, किन्तु इतना तो तय है कि तब और अब में धरती आसमान का फर्क आ गया है।
आज मैं बेटे के साथ खरीदारी करने निकला, उसे अपने लिए एक स्कूल बैग लेना था , बाजार पहुचते हीं लड़का मुझे एक दुकान पर लेकर गया जैसे हीं हम दुकान पर पहुंचे उसने हमें एक बैग दिखाया और बोला मुझे यहीं बैग चाहिए !………..शायद पहले से ही वह देख कर आया था, मैने दुकानदार से बैग का उचित मूल्य बताने को कहा ……..उसने जो मूल्य बताया, हमें बहुत ही ज्यादा लगा …….ज्यादा ही नहीं इतना ज्यादा लगा कि बारगेनिंग के बाद भी मुझे अपना पौकेट कटता दिखा , मैने लड़के को लेकर अपने एक जानकार के दुकान का रुख किया और उनसे बोला भाई साहब एक स्कूल बैग लेना है; और लड़के को बोला ……..। “बेटा देख लो जो बेहतर लगे ले लो”।
बेटे ने एक सेकेंड के अन्दर सम्पूर्ण दुकान का मुआयना ऐसे किया जैसे कोई इनकमटैक्स आफिसर गुप्त रुप से किसी काले धन धारी के घर का मुआयना कर रहा हो । एक भी बैग उस दुकान का उसे पसंद नहीं आया दुकानदार और मै…. दोनों समझाते रहे एक बार अंदर बैठकर कुछ और बैग देखो तो सही किन्तु वह टस से मस ना हुआ……….हाँ सड़े सा मुंँह बना कर सिधा, सुन्दर व सटीक जवाब दिया मुझे कोई बैग – वैग नहीं लेनी…….. इतना बोल कर वह वहाँ से घर के लिए प्रस्थान कर गया और मैं बुत बना उसे वहाँ से “खिसीयानी बिल्ली खम्भा नोचे” वाली मुद्रा में जाते देखता भर रहा। स्तब्ध खड़ा था मैं……और……..
….लड़का वहाँ से चला आया था किन्तु मैं अगले पन्द्रह मिनट वहीं खड़ा रहा …… तरह -तरह की सोचो ने मानसपटल पर कब्जा जमा लिया ।
मै विद्यालय से छुट्टी के बाद घर आया और पापा से बोला था “पापा मुझे भी स्कूल बॉक्स चाहिए” …. तब पापा ने हामी तो भर दी ….हाँ ठीक है दीलादेंगे; किन्तु हप्ता , महीना करते करते पुरे वर्ष बीत गये किन्तु स्कूल बॉक्स नहीं मिला मुझे…
….बाल मन हठी तो होता ही है कारण हठ बालपने की एक अहम बिन्दु है…. ……थोड़े हठ हमने भी किये …….हठ के प्रतिउत्तर में पीताजी का झन्नाटेदार थप्पड़ नसीब हुआ था……सोचकर ही समुचे शरीर में शीहरन दौड़ जा रही है,
उस एक चाटे ने जैसे समय से बहुत पहले ही हमें अपने परिवारिक वस्तुस्थिति समझने की नैसर्गिक क्षमता प्रदान कर दी हो …….फिर कभी किसी चीझ के लिए हमने हठ नहीं किया, जो मिला पहने, जो बना खाये, फिर भी पढाई और घर के सभी कार्य ……जो मेरे करने योज्ञ थे; बड़े ही तनमयता के साथ करते रहे!
कभी कोई शिकायत अपने माता-पिता से, अपनी परिवारिक वस्तुस्थिती से या फिर अति अभाव ग्रस्त जीवनशैली से कदापि नहीं रही……हाँ जैसे – जैसे समय आगे निकलता गया सहनशीलता दिन प्रतिदिन बढती व निखरती गई।
तब बहुत ही कम स्कूलों के ड्रेस कोड होते थे , विद्यार्थियों के वस्त्र देख उसके घरेलु सामर्थ्य का स्वतः ही अंदाजा हो जाया करता था, तब हमने ब्राण्डेड वस्त्रों के नाम भी नहीं सुने थे, तब के परिवेश में माता- पिता का फर्ज निभाना शायद आज के अपेक्षाकृत ज्यादा आसान था, किन्तु आज यह कार्य जलते अंगारों पर नंगे पाव चलने जैसा होता जा रहा है। उपर से आज का यह ब्राण्डेड युग, एक तो करेला ऊपर से नीम चढा।
कुछ ही पलो में कितना कुछ सोच चूका था मैं खैर ; आखिरकार सोच की तंद्रा भंग हुई जब किसी ने आवाज दी , मैं फिर से पहले वाले दुकान पर पहुँचा और वहीं बैग जो लड़के ने पसंद किया था मोलकर ले आया।
बहुत सोच विचार करने , दोनों जनरेशनो का सम्यक विशलेशण करने के बाद समझ सका कि हमने अभाव को बड़े करीब से देखा था ……सही अर्थों में अभाव को जीया था लेकिन, हमने अपने बच्चों को कभी भी अभाव का लेस मात्र अहसास तक नहीं होने दिया …….तब भी हमने खुद से समझौता किया, खुद को समझाया; और आज भी खुद ही समझौता कर रहे है, तभी तो बेटे के मन को ठेस ना पहुंचे अतः वो बैग मोल लाया।
आज की जो परिस्थिति है यहाँ तक तो ठीक किन्तु आनेवाले कल में और कितना परिवर्तन आयेगा,समाज की वास्तविक दशा और दिशा क्या होगी, एक माता- पिता का फर्ज और कितना दुरुह होगा रिश्तों की समाजिक, मौलिक, भौगोलिक स्थिति क्या होगी अभी से कह पाना या तब के निमित्त कुछ भी सोच पाना बड़ा ही कठिन कार्य है।।
राम ही जाने
क्या कुछ होगा आगे।।।
✍️ संजीव शुक्ल “सचिन”