कलाम-ऐ-दर्द (ग़ज़ल )
कलाम-ऐ-दर्द
कितनी शिद्दत से करते हैं तुमसे प्यार ,
हल-ऐ-दिल अपना बयाँ कर सकते नहीं .
दिल का हर ज़ख्म बन गया नासूर ,
मगर आह भी भर सकते नहीं.
रोते हैं चुपके-चुपके मगर तन्हाई में,
रुसवाई के सबब महफ़िल में रो सकते नहीं.
तुम्हारी यादों का मौसम आता है ,चला जाता है,
तुम्हारी तस्वीर के सिवा हम बहल सकते नहीं .
तुमसे मुलाक़ात और दीदार की आरजू में,
करेंगे कयामत तक इंतज़ार ,यूँ तो मर सकते नहीं.
मेरी हस्ती मेरी ना रहिये ज़रा गौर कीजिये,
यह है एक मजार ,जिंदगी इसे बना सकते नहीं.
ग़ज़ल गर छेड़नी है तो दर्द भी चाहिए,
यूँ तो हम शायर बन सकते नहीं.