कलयुगी दोहें
बनता कारज देख के लियो मुँह फुलाए ।
कारज बिगड़ जाए तो लियो मुख छिपाए ।।
प्रेम कभी न कीजिए रहिए कपट कमाए ।
जब तक झगड़ा न हो कपटी सदा कहाए ।।
अच्छाई में कुछ नहीं धरा बुरा ही करता जांए ।
जब तक बुरा न कहे बुराई में सदैव समाए ।।
क्रोध मोह कभी न छोड़िए लालच सदा कमाए ।
स्वार्थ भाव में डूबे रहें लोभी रहें कहलवाएं ।।
करत करत बकवास से सुजान बने नादान ।
बेवकूफियत में लिप्त रहो बनोगे तभी महान ।।
सज्जन ढूँढ्त मैं थका सज्जन मिला न कोय ।
छानबीन अपनी कियो मुझ सा सज्जन न कोय ।।
धर्म काण्ड में कुछ न पड़ा रहो पाप कमात ।
उल्टा सुलटा रहे कीजिए पहुंचो पापी जमात ।।
नेकी कभी न कीजिए सदा मारो डण्डे हाथ ।
मरन मारन पर आजिए सीधे करो अपने हाथ ।।
प्रेम की कोई भाषा नहीं सदा गाली रहो सुनाय ।
झगड़ा सदैव कीजिए बदतमीज सदा रहे कहाय ।।
कलयुग प्रेम देखिए कई संग प्रसंग निभाय ।
जीवन संगिनी राह ताकती प्रेयसी प्रीत निभाय।।
सुखविंद्र सिंह मनसीरत